बिहार: पिछले 3 साल में सिर्फ़ 2136 परिवारों को ही मिला मनरेगा के तहत 100 दिन का काम !

केंद्र से लेकर स्थानीय मालिक वर्ग भी नहीं चाहता कि गांवों में मजदूरी बढ़े और मज़दूर सशक्त बने”
साल 2004 से नरेगा पर काम कर रहे स्वतंत्र निकाय, पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार सरकार ने 34 लाख परिवारों को रोजगार देने का दावा किया- जो पिछले तीन वर्षों में सबसे अधिक है।

जबकि हक़ीक़त में केवल 2136 परिवारों ने अब तक 100 दिन का काम पूरा किया है। पीएईजी ने बिहार में अधिनियम की प्रगति को जुलाई और अगस्त के बीच ट्रैक किया, ताकि नरेगा प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) से मिले व्यापक आंकड़ों को परखा जा सके।

पीएईजी ने अपने सर्वे के दौरान उन परिवारों से संपर्क किया जिन्होंने 100 दिन का काम पूरा कर लिया था, उनकी संख्या, 100 दिनों के काम को पूरा करने वाले घरों की संख्या, राज्यों के पास बची धनराशि, काम की मांग और दिए गए रोजगार की अन्य राज्यों से तुलना आदि।

इस जांच-परख से सामने आया कि बिहार सरकार ने 34 लाख परिवारों को रोजगार देने का दावा किया- जो पिछले तीन सालों में सबसे अधिक है।

जबकि वहां केवल 2136 परिवारों ने अब तक 100 दिन का काम पूरा किया है। इसकी तुलना में मध्य प्रदेश में 33,000 और राजस्थान में 27,000 परिवारों ने 100 दिन का काम पूरा किया।

अप्रैल को छोडक़र, अगस्त 2020 तक जिन परिवारों को रोजगार दिया गया, उनकी संख्या पिछले तीन वर्षों की तुलना में कम से कम डेढ़ गुना अधिक थी।

भोजपुर जिले के जगदीशपुर ब्लॉक में काकीला पंचायत के मुखिया जमील अख्तर कहते हैं, मनरेगा के तहत नियम त्रुटिपूर्ण हैं और अधिनियम से न तो मजदूर को फायदा होता है और न ही नियोक्ता को।

केवल एक जनप्रतिनिधि जानता है कि मनरेगा के तहत लोगों का नामांकन प्राप्त करना कितना मुश्किल है। वे बताते हैं, मैं 2016 में मुखिया बन गया और मनरेगा के तहत अपने गांव के काम में युवाओं को लाने के लिए उत्सुक था।

इसलिए, मैंने गांव के एक छोटे से प्रोजेक्ट से रोजगार पैदा करने की कोशिश की।

लेकिन सिस्टम टूट गया है। जमील कहते हैं, भुगतान कभी भी समय पर नहीं होता है। एक मजदूर पैसे की कुल राशि के लिए पांच-छह महीने तक इंतजार क्यों करेगा?

जमीनी हालात का जायजा लेने पर आठ जिलों में पाया गया कि राज्य, जिला और पंचायत स्तर के अधिकारियों के बीच गहरा मतभेद हैं, खासकर जब यह संकट के दौरान प्रवासी श्रमिकों के लिए घोषित कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन की बात आई।

जमील के गांव से लगभग 115 किलोमीटर दूर, बिहार के वैशाली जिले में करथन बुजुर्ग पंचायत के लाल महतो भारत-नेपाल की सीमाएं फिर से खुलने का इंतजार कर रहे हैं।

अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के महतो मार्च में लौटने के बाद से बेरोजगार हैं। वे कहते हैं, यहां के मुकाबले मैं काठमांडू में ज्यादा कमाता हूं।
उनकी मां, 50 वर्षीय कृष्णा देवी बताती हैं, हमारे पास जॉब कार्ड है, लेकिन किसी भी नौकरी के बारे में कभी नहीं सुना।

उन्होंने बुकलेट दिखाई, जो खाली पड़ी थी। निराशा और गुस्से से उन्होंने कहा, भिखारियों का जीवन बेहतर होता है। कम से कम वे मजदूर होने के इस नाटक से तो दूर हैं।

श्रम, रोजगार और पलायन पर शोध करने वाले प्रोफेसर रवि श्रीवास्तव कहते हैं, ‘मनरेगा जैसी योजनाओं को चलाने के लिए कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है।

राजनीति का कब्जेदार वर्ग मनरेगा जैसी योजनाओं को जमीनी स्तर पर सफल नहीं होने देना चाहता है।

भूमि-मालिकों और ग्रामीण राजनीतिक वर्ग को डर है कि अगर गरीब लोगों के लिए गांवों में श्रम मांग और रोजगार का वैकल्पिक स्रोत बन गया तो वे स्वायत्त और सशक्त बन जाएंगे।

इस बात की हमेशा आशंका रही है कि गरीबों की ये मजबूती ग्रामीण मजदूरी बढ़ाएगा।

प्रोफेसर श्रीवास्तव का कहना है कि मनरेगा जैसी योजनाओं की हालत ये है कि मुजफ्फरपुर, वैशाली, सोनपुर, सारण, भोजपुर, समस्तीपुर, नालंदा, नवादा, छपरा, अर्राह जैसे जिलों के ग्रामीण अपने अधिकारों की जानकारी के बिना इस काम को करते हैं।

उन्होंने कभी ग्रामसभा या रोजगार देने की मदद मिलते नहीं देखी।

सामाजिक कार्यकर्ता उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं, जबकि गरीब और अत्यंत पिछड़े तबके कभीकभार ही हाथपांव मारते हैं। जनहित की योजनाओं को धरातल पर उतारने को पारदर्शिता रखने वाली मजबूत प्रशासनिक मशीनरी हर स्तर पर होना चाहिए, जबकि मनरेगा दिल्ली में बैठे नौकरशाहों और मंत्रियों की इच्छाओं के हवाले है।

  • डॉ. म. शाहिद सिद्दीकी
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