मार्निंग वाक पर लॉकडाउन इफेक्ट

ये मार्निंग वॉक नामक पुण्य कार्य हमारे जीवनचर्या में किस काल से घुसा यह पता करना भी एक जटिल कार्य है। महाभारत और रामायण काल में पांडवों के या भगवान राम के मार्निंग वॉक के प्रसंग पढ़ने को नहीं मिलते। बाद के बौद्ध और मुगल काल के लेखकों और कवियों ने भी इसका जिक्र नहीं किया… तो क्या इसे अंग्रेज ले आए ? है न माथापच्ची ?? ये आया कभी भी हो पर अब यह तमाम शहरी लोगों के लिए फिट दिखने की चाह के चलते एक आवश्यक नित्य कर्म है।

गांव के लोकजीवन में सुबह-सुबह की एक लोटा संस्कृति जरूर रही है। लोटा लेकर निकला व्यक्ति कितनी दूर तक जाएगा, यह उसके भीतर के महासंग्राम से तय होगा। शिक्षा और रोजगार-व्यवसाय के चलते ग्रामीणों का पलायन शहर की ओर हुआ और जीवन शैली में बदलाव के कारण शायद मार्निंग वॉक जरूरी हुआ। शहर में बसने के बाद कभी-कभी गांव जाने वाले यही कुलीन लोग झका-झक ट्रैकशूट के साथ सफेद पीटी शू पहन कर गांव में भी मार्निंग वॉक करने लगे। साथ ही मेहनतकश अनुभवी किसानों को वैज्ञानिक खेती का यू-ट्यूबिया ज्ञान भी पेलने लगे।

शहर में मेरे घर के सामने की सड़क सुबह-सुबह की सैर वालों से गुलजार रहती है। बच्चे, बड़े, बूढ़े हर वर्ग के लोग घिसटते-टहलते-दौड़ते मार्निंग वॉक की लौकिक क्रिया में शामिल दिखते हैं। सुबह की बेहोशी भरी नींद से संघर्ष कर कभी-कभार मैं भी सैर पर निकल लेता हूं। घर के पास से सबसे पहले दो शहरी टाइप ग्रामीण महिलाएं निकलती हैं। उनकी आवाज किसी लाउडस्पीकर से कम नहीं…सुबह के सन्नाटे को चीरती दूर-दूर तक सुनाई देने वाली…सबको जगाने का काम भी करती हुई।

दोनों फुल वॉल्यूम में निरंतर चर्चारत और चर्चा का विषय….कल घर-पड़ोस में किसकी कितनी ऐसी-तैसी मेरे द्वारा की गई। अपने इस हुनर में वे नवाचार भी करती हैं, ऐसा उनके संवाद से प्रतीत होता है। थोड़े दिनों में ही मेरे सामान्य ज्ञान में भारी वृद्धि हुई। मुहल्ले में किसके-कितने बच्चे… कौन कहां सेवा में… कब हार्ट का बाई पास.. कौन सा अस्पताल कितना लूटता है आदि जानकारी चंद दिनों में हासिल हो गई। किसकी कौन सी बहू सेवाभाव रखती है, कौन सा लड़का नालायक है.. कौन कहां नौकरी-कम्पटीशन में सेलेक्ट हुआ आदि आदि…।

मैनें देखा कि ये सारी चर्चा महिलाएं मिशनरी भाव से करती हुई आगे बढ़ती हैं। अपनी ही नहीं … इन्हें पास-पड़ोस की भी चिंता है उनका भी डिटेल देती हुई। सयानों के मार्निंग वॉक का लाभ लेकर युवा वर्ग मोबाइल पर अपने और अपनी वाली में व्यस्त दिखता है…आवाज इतनी जादुई कि उनके अपने कानों को ही न सुनाई दे..। यहीं पर मुझे अपडेट मिला कि अधिकतर युवाओं के लिए अफेयर पैशन नहीं बल्कि फैशन है। गांव की खेती, नदी, पहाड़ त्योहार जैसे लोकजीवन के तत्वों का मेरा शब्दकोश मार्निंग वॉक में ही समृद्ध हुआ।

सभी मार्निंग वाकर दुनियादारी वाले ही नहीं होते, बहुतेरे आध्यात्मिक और पुजारी किस्म के भी होते हैं। दिन और देवता के हिसाब से रंग वाले फूलों की इनको भारी जरूरत होती है। बाउंड्रीवाल के इस या उस पार खिले फूलों पर इनकी नजर पड़ी कि फिर डाल और फूलों की खैर नहीं। बाउंड्रीवाल से लगी नाली से बाहर आती हुई एक आंटी जी सुबह का सेप्टिक टैंक के ताजे पानी के स्वाद की व्याख्या करती हुई और इसके जनक लोगों की लानत-मलानत करती दिखीं।

पता चला कि फूल की जिस डाल से ये रोज फूल तोड़ती थीं वह आज गच्चा दे गई.. हाथ से अचानक छूट गई…और.. आंटी जी नाली में…। दूसरी आंटी थोड़ा होशियार… एक छड़ी और पॉलीथीन लेकर निकलती हैं…। फूल दिखा तो छड़ी से डाल झुकाकर तोड़ लिया और किसी की आवाज आई तो छड़ी राह चलने में उपयोग होने लगी। एक दिन सोते समय खिड़की की कांच से टार्च की रोशनी अंदर आई। चोरों की आशंका में मैं भी डंडा लेकर बाहर आया। एक अंकल जी ने बाहर से निवेदन किया कि भैया अंधेरे में फूल तोड़ रहा था… पूजा के लिए।

मेरे गेट पर सफेद मदार का पेड़ था। एक आंटी जी उसे झुका रहीं थीं फूल के लिए… पूरी डाल ही टूटकर उनके उपर गिर पड़ी। श्रीमती जी देख रही थीं ….अंदर से फौरन कुल्हाड़ी लेकर आईं… बोलीं पूरा पेड़ ही काट दीजिए जड़ से …। ऐसी तमाम घटनाएं मार्निंग वाक के समानांतर आम हैं।

इसी बीच आचानक लॉकडाउन की घोषणा और कोरोना वायरस के अज्ञात भय ने सारा दृश्य बदल दिया है। बाहर निकलने वालों की संख्या अचानक कम हो गई है। लोगों से अधिक पुलिस का डंडा-वॉक शुरू है। लोगों की जो गैस बिना टहले नहीं बाहर आती थी वह अब घर में ही पास होने लगी हैं। जो निकलते भी है तो दूर-दूर। घर पड़ोस की चर्चा के साथ सरकार बनाने-गिराने की चिंता खत्म है।

बाहर निकलने वाले मुंह पर मास्क लगाए मौन साधक बने नजर आते हैं। आकाश से धूल-धुंए की परत छट चुकी है… प्राकृतिक दृश्य दूर से दिखाई देने लगे हैं… पेड़ पौधे, वायुमंडल अपने मूल रूप में लौट रहे हैं। उषा काल अपने नैसर्गिक और आध्यात्मिक आभा से युक्त है।

सड़क किनारे फूलों की डालियां अपने मन से लहराती-इठलाती हैं ….। किसी कोरोना वाले ने कहीं छूकर तो नहीं रखा.. इस डर से कोई उनके कान नहीं खींचता। फूल सुबह की रोशनी के साथ अपनी स्वाभाविक गंध और आकर्षक मुक्कान को साथ हाजिर हो रहे हैं… माहौल को खुशनुमा कर देने के लिए। इन पर कूदती फुदकती रंग-बिरंगी तितलियां-चिड़िया अपनी कूद-फांद से मानों पूछती हुई कि यह सब इसी रूप में क्यों नहीं रह पाता?

देवेंद्र द्विवेदी-रीवा

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