८४ फ़ीसदी मज़दूरों को नहीं मिली कोई मदद, लौटने वालों में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की सबसे बड़ी संख्या

भारत में किस तरह वर्ग और जाति एक दूसरे से गुंथे हुए हैं उसकी एक नज़ीर प्रवासी मज़दूरों के विश्लेषण से मिल सकती है। ये सवाल शुरू से ही बना हुआ है कि क़रीब 20 करोड़ प्रवासी मज़दूरों में भूमिहीन, खेतिहर मज़दूर, दलित, मुस्लिम, आदिवासी आबादी की कितनी हिस्सेदारी है।

इसे समझने में हाल ही में प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट थोड़ी मदद करती है। रिपोर्ट के मुताबिक़ , मार्च के अंत में शुरू लॉकडाउन के बाद से उत्तर प्रदेश में 21.6 लाख, बिहार में 10 लाख, मध्यप्रदेश में 7.3 लाख मजदूर अपने गाँव वापस लौटे हैं।

ये रिपोर्ट भारत सरकार के आंकड़ों पर आधारित है, जिसके अनुसार, इस कोरोना लॉकडाउन में 97 लाख मजदूरों को बसों और ट्रेनों के माध्यम से उन्हें उनके गांव पहुँचाया गया है। इनमें मजदूरों की वो आबादी शामिल नहीं है जो लॉकडाउन के दौरान पैदल ही सैकड़ों पर किलोमीटर नापते हुए अपने घरों तक पहुंची है और इस दौरान हज़ार से ज़्यादा की मौत हुई है।

इन आंकड़ों के अनुसार, महाराष्ट्र से 11 लाख, गुजरात से 20.5 लाख, पश्चिम बंगाल से 3.97 लाख और कर्नाटक से 3 लाख मजदूर अपने गाँव वापस गए हैं। मजदूरों के गांव वापसी में एक बात गौर करने वाली है कि इतने बड़े देश में औद्योगीकरण के गिने-चुने ही शहर हैं जहां से मजदूर बड़े पैमाने पर अपने गांव को लौटे हैं।

ये औद्योगिक शहरों में बहुत से अंग्रेजों के जमाने से ही चले आ रहे हैं। आजादी के 73 सालों में यहां की सरकारों ने औद्योगिकरण और कृषि के विकास का कोई नया मॉडल नहीं खड़ा किया है जिससे बढ़ती हुई आबादी को उनके घर के आस पास ही रोजगार के साधन उपलब्ध हो सकें।

एसोसिएशन फ़ॉर कॉम्यूनिटी रिसर्च एवं एक्शन (एकरा) ने भी देशव्यापी लॉकडाउन में फँसे करीब १ लाख ७९ हज़ार मज़दूरों से संपर्क कर उनकी समस्या जानने की कोशिश की। जिसमें क़रीब ८४ फ़ीसदी मज़दूरों ने बताया कि उन्हें सरकार की तरफ़ से कोई मदद नहीं मिली है।

78% मज़दूरों की उम्र 18-40 के बीच
मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने कोरोना लॉकडाउन में अपने गांव आए मजदूरों की संख्या जानने के लिए 27 मई से 6 जून 2020 तक एक सर्वे कराया ताकि सरकार द्वारा बनाए गए रोजगारसेतु वेब पोर्टल द्वारा उन्हें रोजगार उपलब्ध कराया जा सके।

दावा है कि इसके माध्यम से जरूरतमंद मजदूर प्रदेश स्तर पर अपनी दक्षता के अनुसार रोजगार पा सकेंगे। इस पोर्टल से राज्य के मझोले और लघु उद्योग, बिल्डर और ठेकेदार जुड़े हुए हैं। लॉकडाउन के दौरान मध्यप्रदेश में 7.3 लाख मजदूर अन्य प्रदेशों से अपने गांव वापस आए हैं।

इनकी पृष्ठभूमि का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि मजदूरों में अनुसूचित जनजाति के 2.22 लाख मजदूर हैं जो वापस आए मजदूरों की कुल आबादी का 30.4 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति के 2.16 लाख मजदूर हैं जो वापस लौटे कुल मज़दूर आबादी का 28 प्रतिशत हैं।

अन्य पिछड़ी जाति के 2.80 लाख मजदूर हैं जो वापस लौटे कुल मजदूर आबादी का 38.4 प्रतिशत हैं। जबकि गांव वापस आए 7.3 लाख मजदूरों में सिर्फ 12 हज़ार सवर्ण मज़दूर हैं जो मात्र 2.7 प्रतिशत के करीब बैठते हैं। इन मजदूरों में 3.7 लाख मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते थे, जो कुल मज़दूर संख्या का 50.6 प्रतिशत हैं। मध्यप्रदेश में घर वापस लौटे 78% मजदूरों की उम्र 18 से 40 वर्ष के बीच है।

मध्यप्रदेश लौटने वालों में 58% SC/ST
असंगठित क्षेत्र जैसे कृषि, ईट, टाइल्स, लोहार, बढ़ई, रेस्टोरेंट्स, लोडिंग-अनलोडिंग, ड्राइवर और गार्ड की नौकरी करने वाले मजदूरों में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति की संख्या क़रीब एक लाख (109500) है जो कुल असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरं आबादी का 60 प्रतिशत है।

2011 की जनगणना के अनुसार, मध्य प्रदेश की कुल आबादी में अनुसूचित जाति 15.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति 21.1 प्रतिशत थी। जबकि लॉकडाउन में घर लौटे मजदूरों में अनुसूचित जनजाति की संख्या 30.4 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 28 प्रतिशत है। इससे ज़ाहिर होता है कि निचली जातियां रोज़गार के अवसरों से दूर हैं और अपने जीवन यापन के लिए यही आबादी सबसे ज्यादा दरबदर भटकती रहती है।

मध्य प्रदेश में 7.3 लाख वापस लौटे मजदूर आबादी में महाराष्ट्र से 1 लाख 97 हजार 100 मजदूर हैं जो कुल घर वापसी का 27 प्रतिशत हैं। गुजरात से 1,75,200 मज़दूर है जो 24 प्रतिशत हैं। राजस्थान से 80,3,00 मजदूर जो 11 प्रतिशत है। दिल्ली से 58,400 मजदूर जो 8 प्रतिशत है। हरियाणा से 51,100 मजदूर हैं जो 7 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश से 43,800 मजदूर जो 6 प्रतिशत है। इन मजदूरों में 5.97 लाख मज़दूर अपने बीवी बाल बच्चों के साथ घर वापस लौटे हैं।

इस सर्वे में मध्य प्रदेश के 5500 गांव और 380 कस्बा/शहरों को शामिल किया गया है। मध्य प्रदेश के 10 जिलों बालाघाट, छतरपुर, मुरैना, रीवा, सतना, सिद्धि, भिंड, पन्ना, सिओनी और टीकमगढ़ में मजदूर सबसे ज्यादा वापस आए हैं।

जबकि इंदौर, भोपाल और नरसिंहपुर में उपरोक्त 10 जिलों की तुलना में कम मजदूर आबादी घर वापस आई है।

भारतीय समाज का ब्राह्मणवादी वर्गीय चरित्र-
भारत में उद्योगों और कृषि का विकास इतना असंतुलित हुआ है कि गांव की गरीब आबादी को अपने मौसमी फसलों की बुवाई और कटाई के समय को छोड़कर बाकी समय में रोजगार के लिए 1000-1200 किलोमीटर दूर शहरों में आना पड़ता है।

और यहां पर मैन्युफैक्चरिंग उद्योग और भवन निर्माण के कामों में वो लग जाते हैं। ये मजदूर शहरों में डेली वेजेज पर काम करते हैं और जीवन की मूलभूत जरूरतों से महरूम रह कर जीवन गुजारते हैं। चूंकि रोजगार का कोई स्थाई बंदोबस्त नहीं है इसलिए गरीब मजदूर आबादी का लगातार गांव से शहरों के तरफ आवागमन जारी रहता है।

इंडियन एक्सप्रेस में छपे रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि इस महापलायन ने केवल वर्गीय अंतरविरोध को ही नहीं उजागर किया है बल्कि भारतीय समाज के जाति व्यवस्था के अंतरविरोध को भी सतह पर ला दिया है।

मध्यप्रदेश में घर वापस आए मजदूरों में 90% आबादी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की है जो जाति व्यवस्था के कारण परंपरागत रूप से शिक्षा, ज़मीन,और रोज़गार के अन्य साधनों से वंचित हैं।

वैसे तो आबादी के अनुसार रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी प्राइवेट और सरकारी रोजगार में नौकरी के अवसर जो भी उपलब्ध हैं उनमें निचली जातियों को पढ़ने-लिखने का अवसर न उपलब्ध होने के कारण उनकी भागीदारी ऊंचे स्तर पर बहुत ही कम है।

सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में जातिवादी भेदभाव के चलते दलित और पिछड़ी जातियां हर हमेशा हाशिए पर धकेल दी जाती हैं। एसोसिएशन फ़ॉर कॉम्यूनिटी रिसर्च एवं एक्शन (एकरा) द्वारा प्रवासी मज़दूरों के साथ किए गए देशव्यापी शोध से भी पता चलता है कि लॉकडाउन के दौरान क़रीब १८ फ़ीसदी मज़दूर किसी न किसी भेदभाव के शिकार हुए हैं।

जातीय विभेद और रोज़ग़ार के अवसर
गांव या राज्य स्तर पर जो रोजगार के अवसर उपलब्ध भी होंगे उसे दबंग जातियां हथियाने की पूरी कोशिश करेंगे जिससे जातिवादी और वर्गीय नफरत और हिंसा तेजी के साथ बढ़ सकता है जिसका फायदा उठाने के लिए सारी चुनावबाज़ पार्टियां तैयार बैठी हैं।

इसमें सबसे ज्यादा सक्रिय भूमिका भारतीय जनता पार्टी की है। प्राकृतिक आपदाओं में होने वाली मानव त्रासदी में जनता यह उम्मीद करती है कि भारत सरकार बिना पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखे जनता की जान माल की सुरक्षा करेगी।

इंसानियत यही है और यही होनी भी चाहिए। किंतु या सदिच्छा बहुत कम ही सच साबित होती है। इन मानव त्रासदियों के दौरान हर हमेशा दुनिया की सरकारों या भारत सरकार ने मेहनतकशों के जीवन को पहले से भी ज्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण बनाया है।

कोरोना लॉकडाउन में मोदी सरकार ने मजदूरों के प्रति जो हृदयहीनता का परिचय दिया है, इससे यही साबित होता है की मानवीय संवेदना का भी वर्गीय चरित्र होता है। भारत में तो शासकों के वर्ग चरित्र में एक और तमगा ब्राह्मणवाद का जड़ा हुआ है जो अपने जन्म काल से ही मानवद्रोही है।

मोदी सरकार ने इस आपदा से निपटने के बजाय सरकार की आलोचना करने वाले जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, छात्रों और महिलाओं को जेलों के अंदर डालना शुरू कर दिया है। ऐसे में डर है कि कहीं इतने बड़े पैमाने पर मज़दूरों की मजबूरी किसी बड़ी मुसीबत का सबब न बन जाए।

-डॉ. म. शाहिद सिद्दीक़ी
Follow via Twitter@shahid siddiqui

इसे शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *