आर्थिक बदहाली और अलोकतांत्रिकता के एक साल !

“आर्थिक बदहाली के साये में शुरू हुआ नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल अनुच्छेद 370, सीएए-एनआरसी और कोरोना संकट के दौरान दिखाई गई अव्यवस्था और अक्षमता के साथ पूरा हुआ। भारी बहुमत पर सवार इस सरकार ने संविधान की धज्जियां उड़ाने, विपक्ष का मखौल बनाने और किसानों व मज़दूरों को बेबस बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

हम सबके ज़ेहन में एक सवाल कौंध रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक साल में देश में क्या बदलाव आए हैं? यह कितना सफल या असफल रहा है। तो यह पता करने का सबसे आसान रास्ता यह है कि हम इस दौरान मीडिया या अख़बार में आई ख़बरों पर बात कर लेते हैं।

अबसे एक साल पहले यानी 30 मई 2019 के दरम्यान लगभग सभी अख़बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार दूसरी बार भारी बहुमत से मिली जीत के बाद प्रशंसा से भरे हुए थे। आज़ाद भारत के इतिहास में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ लेने वाले मोदी पहले गैर-कांग्रेसी और गांधी-नेहरू परिवार से अलग नेता भी बने थे।

उन्होंने आज़ाद भारत के इतिहास की राजनीतिक धारा को सेंटर और लेफ्ट से निकालकर पूरी तरह से राइट की तरफ मोड़ दिया था। उनके शपथ ग्रहण समारोह में देश भर के कार्यकर्ता बुलाए जा रहे थे। प्रधानमंत्री समेत पूरे पार्टी इसका श्रेय देशभर में फैले आम कार्यकर्ताओं और समर्थकों को दे रही थी।

अब लगभग एक साल बाद जब देश कोरोना संकट के चलते बदहाल है तो कुछेक अख़बार और मीडिया संस्थान इसकी भी वास्तविक तस्वीर दिखा रहे हैं। अभी देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाल हालात, लॉकडाउन के चलते भूखे मरने के मजबूर लोग और पैदल ही देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने के चक्कर में जान गंवाते मज़दूरों की तस्वीर सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया में भी छाई हुई हैं।

बेबस मज़दूरों के पलायन और मौत को गले लगाने की तस्वीर जहां सभी को विचलित कर रही है तो वहीं सरकारी तंत्र इस सबसे इतर छह साल (पिछले 5 और अब 1 साल) की उपलब्धियों का जश्न मनाने के लिए 750 वर्चुअल रैलियां आयोजित कर रहा है। इस देश में ट्रेनें भले ही रास्ता भटक जाएं, लोग भूख और प्यास से मर जाएं और स्वास्थ्य सुविधाओं समेत दूसरे मसलों को लेकर सरकार भले ही असहाय और हांफती नजर आए लेकिन प्रोपेगेंडा बेहतर तरीके से होगा, क्योंकि यह सरकार इस काम को आसानी से कर लेती है।

फिलहाल अब पिछले एक साल में सरकार द्वारा लिए गए फैसलों और उसकी कार्यप्रणाली पर भी चर्चा कर लेते हैं। सरकार के इस कार्यकाल का शुभारंभ उसके पिछले कार्यकाल में उठाए गए जीएसटी और नोटबंदी के दुष्प्रभावों के चलते बड़ी संख्या में बेरोजगार हुए लोगों से होता है। 31 मई 2019 को सरकार ने दिसंबर 2018 से रोकी रिपोर्ट जारी की जिसके मुताबिक, 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी रही, जो 45 साल में सबसे ज्यादा थी।

इसके बाद विकास दर का नंबर आया। 1 जून 2019 को जारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2018-19 की आखिरी तिमाही में विकास दर 5.8 फीसदी रह गई जो 17 तिमाहियों में सबसे कम थी।
तब से लेकर अब तक सरकार लगातार आर्थिक मोर्चे पर असफलता के मामले में अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ती नजर आई।

कोरोना संकट ने आग में घी का काम किया। आर्थिक मोर्चे पर जहां सरकार को तेजी से काम करना चाहिए था, वहीं उसके फैसले दिशाहीन नजर आए। सरकार घुटनों पर बैठी नज़र आई और आर्थिक मंदी का व्यूह गहरा होता गया। बड़े पैमाने में हुई छंटनी के चलते लोग बेरोजगार होकर घर बैठ गए।

मंदी के चलते कंपनियों को मुनाफा घटा और वो बंदी के कगार पर आ गई या बंद हो गई।

इस बीच सरकार ने मई में कोविड-19 महामारी के संकट से अर्थव्यवस्था को निकालने के लिए 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज घोषित किया लेकिन ज्यादातर जानकार इसे सरकार की आंकड़ों की बाजीगरी बता रहे हैं। उनका दावा है कि यह पैकेज सीधे मदद की बात कम करता है और सरकार की भावी योजनाओं और कर्ज की सुविधाओं की ज्यादा बात करता है।

मोदी सरकार ने इस दूसरे कार्यकाल में सबसे बड़ा फैसला जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने और राज्य का बंटवारा दो केंद्र शासित प्रदेशों में करने का रहा है। इस फैसले को दौरान दिखा कि भारी बहुमत पर सवार यह सरकार संविधान की धज्जियां उड़ाने, विपक्ष का मखौल बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ने वाली है। इस फैसले पर अमल के खातिर बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की मौजूदगी में वहां कर्फ्यू लगा दिया गया।

इस दौरान केंद्रीय विपक्ष और जम्मू कश्मीर के राजनीतिक दलों को भरोसे में लेने की कोशिश नहीं की गई। साथ ही राजनीतिक और गैर-राजनीतिक गिरफ्तारियां की गईं। इसमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल थे। हालांकि, दो की हिरासत समाप्त कर दी गई है लेकिन भाजपा-पीडीपी गठबंधन का नेतृत्व कर चुकीं पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती अभी भी हिरासत में हैं। कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियां कब सामान्य होंगी, वह अभी भी अनिश्चितता के भंवर में है।

इसके बाद बीजेपी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पारित किया। इसमें भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू, पारसी, इसाई, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के नागरिकों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया गया।

यानी धर्म के आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान किया गया। दावा किया गया कि धार्मिक तौर पर प्रताड़ित लोगों को नागरिकता दी जाएगी, लेकिन पारित बिल में ऐसा कोई जिक्र नहीं किया गया। तमाम एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारतीय संविधान धर्म के आधार पर नागरिकता की अनुमति नहीं देता है।

फिलहाल, यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सरकार की सफ़ाई के बावजूद पूरे देश में इसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हुए। इसमें बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत में लिया गया। बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में छात्रों, शाहीन बाग में महिलाओं ने प्रदर्शन की अगुआई की। इसके बाद दिल्ली में दंगे भी हुए और 56 लोगों की मौत हो गई। इसे भी अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ एक हमले के तौर पर देखा गया।

सरकार के संविधान विरोधी और अलोकतांत्रिक फैसलों का आलम यह रहा कि पिछले एक साल के दौरान देशभर के तमाम छात्र कैंपस उबलते रहे। बड़ी संख्या में छोटे छोटे शहरों में लोग सड़कों पर उतरते रहे। विरोध की यह आवाज पूर्वोत्तर भारत से लेकर कश्मीर और सुदूर केरल तक से उठती रही। कश्मीर, जामिया, शाहीन बाग, दिल्ली दंगों के दौरान सरकार की भूमिका को लेकर देश और विदेशों से भी सवाल उठते रहे।

इसके अलावा राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी इस दौरान चर्चा में रहा। केंद्र सरकार ने इस फैसले के जरिए अपने हिंदू वोटबैंक को साधने की कोशिश की। मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से निजात दिलाने वाले विधेयक को सरकार ने इस कार्यकाल में पारित कराया। इस दौरान देशव्यापी एनआरसी और एनपीआर की बात भी उठी। हालांकि राज्यों के विरोध और कोरोना संकट के चलते फिलहाल यह ठंडे बस्ते में है।

तो वहीं इसी कार्यकाल में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन विधेयक (यूएपीए), 2019 संसद के दोनों सदनों से पारित हो गया। आतंकवाद के खिलाफ यह कानून राष्ट्रीय जांच एजेंसी को पहले के मुकाबले अधिक अधिकार देता है। आरोप है कि इस कानून के जरिए सरकार के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाले लोगों को बड़ी संख्या में गिरफ्तार किया गया है।

सरकार पर यह भी आरोप लगा कि कानून-व्यवस्था एजेंसियों को मामूली आरोपों की जांच में विपक्ष के नेताओं के पीछे लगा देते हैं तो दूसरी ऐसे मंत्रियों को बढ़ावा देते हैं जिनके बयान अल्पसंख्यक समुदाय को भयभीत करते हैं।

फिलहाल पिछले तीन महीने से गहराए विश्वव्यापी कोरोना संकट ने सरकार की अक्षमता की पोल पूरी तरह से खोलकर रख दी। शुरुआत में सरकार इस महामारी को हल्के में लेती रही, फिर अचानक इतना ज्यादा सक्रिय हो गई कि पूरी देश में अव्यवस्था फैल गई। पहले कार्यकाल में भी नोटबंदी जैसे फिजूल के कदम उठाने वाले नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च रात आठ बजे देश को संबोधित किया और चार घंटे के नोटिस पर पूरा देश बंद कर दिया।

इसके लिए सरकार ने अंग्रेजों के बनाए 1897 के महामारी रोग कानून और 2005 में बने डिजॉस्टर मैनेजमेंट एक्ट (एनडीएमए) की मदद लिया। बगैर तैयारी के लागू किए गए लॉकडाउन का भयानक दुष्परिणाम सामने आया। राज्यों समेत दूसरी मशीनरियां भी इसके लिए तैयार नहीं थी।

आर्थिक गतिविधियां लगभग ठप हो गई और बड़ी संख्या में लोग अपने घरों से दूर फंस गए।

इसके बाद की अव्यवस्था की कहानी हम सबके सामने है। कोरोना से संक्रमितों की बढ़ती संख्या पर रोक लगा पाने में सरकार नाकाम रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं का आलम बुरा ही है। डॉक्टर और दूसरे स्वास्थ्यकर्मी पीपीई किट और मास्क जैसी मूलभूत सुविधाओं से जूझते नजर आ रहे हैं। मुंबई जैसे शहरों में अस्पतालों में बेड की कमी हो गई है।

जिस तरह से संक्रमितों की संख्या बढ़ रही है जल्द ही दूसरे शहरों में यही होने जा रहा है लेकिन सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ नज़र आ रही है। और अब सबकुछ खोलने की हड़बड़ी में दिख रही है।
फिलहाल सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन का एक असर अभी साफ दिख रहा है कि आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह से तबाह हो गई है। इसके अलावा किसान और मज़दूर बेबस और मजबूर नज़र आ रहे हैं। आज़ाद भारत में उनकी हालत शायद ही अब से पहले कभी हुई हो।

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल पर कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर टिप्पणी करते हैं, ‘हमारे देश में लंबे समय से चला आ रहा सौम्य और समावेशी राष्ट्र होने का विचार खत्म हो रहा है। उसकी जगह जो भारत उभर रहा है, वह पहले से कम बहुलवादी, कम मतभेद स्वीकार करने वाला, कम समावेशी और कम सहिष्णु रह गया है।

यह मोदी 2.0 के पहले साल की विरासत है। अगर भारत को अपनी आत्मा को दोबारा पाना है, तो अगले साल सरकार को अपनी दिशा बदलनी होगी।’
फिलहाल इस दौरान सरकार के लिए राहत की बात यह रही कि विपक्ष कमजोर था और बिखरा हुआ रहा।

-अमित सिंह

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