इंटरनेट पर कॉम्यूनल वायरस: प्रेस की आज़ादी के नाम पर फ़र्ज़ी ख़बर कितना जायज़ ?

फ़ोटो : पहली तिमाही (Q1-2020) में फ़ेसबुक का आँकड़ा

देश में कोरोना वायरस के कुल मामले करीब ८०,००० के आस-पास पहुंच गए हैं । संक्रमण के मामलों के साथ ही फेक न्यूज के फैलने की दर भी तेज़ी से बढ़ रही है। फैक्ट चेकिंग वेबसाइट बूम की एक स्टडी में पाया कि जैसे-जैसे कोरोना वायरस महामारी बढ़ती गई, फेक न्यूज का प्रसार बढ़ा और उसके विषय भी बदलते गए। बूम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी-फरवरी के दौरान चीन और कोरोना वायरस के को इलाज को लेकर अफवाहें ज्यादा फैलीं। मार्च के महीने में फेक न्यूज का विषय इटली के लॉकडाउन पर रहा।

रिपोर्ट वायरल जानकारियों के डेटा और सबूतों के आधार पर की गई। इन जानकारियों में ट्रेंडिंग न्यूज टॉपिक भी शामिल रहे। जानकारी के प्रसार के माध्यम का भी आकलन किया गया। जनवरी से अप्रैल तक ट्रेंडिंग न्यूज टॉपिक में प्रेडिक्शन थ्योरी, बायो वेपन, इकनॉमी, हेल्थ, पॉलिटिक्स, इटली, चीन, इलाज या बचाव, लॉकडाउन जैसे विषय शामिल रहे।

रिपोर्ट के मुताबिक, ३५ फीसदी फेक न्यूज या भ्रामक दावे वीडियो के जरिए फैलाई गई। जबकि अप्रैल के महीने में मुस्लिम वेंडरों के कथित रूप से खाने के सामान पर थूकने की वीडियो क्लिप में बढ़ोतरी देखने को मिली। करीब 29 फीसदी फेक न्यूज टेक्स्ट मैसेज के जरिए फैली। इन मैसेज में फेक डायग्नोसिस, इलाज और सेलिब्रिटीज के डॉक्टर्ड बयान शामिल हैं। मार्च में ऐसे मैसेज की तादाद में तेजी देखी गई। वहीं, स्टडी में करीब 2% ऑडियो क्लिप्स का भी आकलन किया गया।

इसी तरह नागपुर के राष्ट्रसंत तुकोजी महाराज विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग द्वारा किए गए सर्वेक्षण में भी नतीजे इससे मिलते जुलते पाए गए। सर्वे में अधिकांश लोगों को लगा है कि सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस से जुड़ी ५० से ८० फीसदी जानकारी या खबर फर्जी होती हैं। विश्वविद्यालय ने ये सर्वे २८ मार्च से ४ अप्रैल के बीच करीब १२०० लोगों पर किया था। सर्वेक्षण के मुताबिक़ लॉकडाउन के दौरान लोग ई समाचार पत्रों के जरिए खुद को अपडेट रख रहे हैं। सर्वे में भाग लेने वाले ज़्यादातर छात्र, सरकारी और निजी कर्मचारी, व्यापारी, पेशेवर और गृहणियां शामिल थे। फर्जी खबर के एक सवाल पर सर्वे में ३९.१ फ़ीसदी लोगों ने कहा कि सोशल मीडिया पर 50 से 80 फ़ीसदी जानकारी झूठी थी। करीब १०.८ फीसदी लोगों को लगता है कि सोशल मीडिया पर ८० फीसदी से अधिक जानकारी फर्जी होती है।

हालाँकि , जब पूछा गया कि वह यह कैसे पता लगाते हैं कि कोई पोस्ट या खबर गलत है? तो ३६.५ फ़ीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें यह आधिकारिक स्पष्टीकरण या सरकारी स्रोत से सुधार देखने के बाद पता चलता है। इससे साबित होता है कि स्वास्थ्य, पुलिस, स्थानीय प्रशासन और अन्य सरकारी स्रोत के सक्रिय संचार का सकारात्मक असर होता है।

इसी तरह एक सवाल मीडिया को लेकर किया गया। सर्वे में शामिल लोगों से पूछा गया कि क्या मीडिया अन्य अहम खबरों पर कोरोना वायरस को जरूरत से ज्यादा तरजीह दे रहा है? तो ३४.९ फीसदी लोग तटस्थ रहे और ३२.७ प्रतिशत लोगों ने काफी सहमति और सहमति का विकल्प चुना। जबकि ३२.३ फीसदी ने विरोधी विकल्प को चुना।

इससे पहले बूम ने पहला कोविड-१९ फैक्ट चेक २५ जनवरी को किया था। फरवरी में दिल्ली चुनाव, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत दौरा और उत्तर-पूर्वी दिल्ली हिंसा पर सबसे ज्यादा फेक न्यूज फैलीं। मार्च के महीने में फेक न्यूज का विषय कोरोना वायरस बन गया था। महामारी से जुड़ी भ्रामक जानकारियों की तादाद मार्च में बढ़ गई थी। सर्वे में पाया गया कि कोरोना वायरस के मामलों की तादाद और उनके फैक्ट चेक की संख्या का सीधा संबंध है। जैसे-जैसे संक्रमण के मामले बढ़ते चले गए, फैक्ट चेक की संख्या भी बढ़ती गई।

ग़ौरतलब है कि लॉकडाउन के दौरान डिजिटल समाचार मीडिया का इस्तेमाल ५.८ प्रतिशत तक बढ़ा है, जबकि टीवी के दर्शकों की संख्या में भी ८ फीसदी से थोड़ी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। लेकिन, ये सिर्फ़ भारत की स्थिति नहीं है। पूरा विश्व फ़र्ज़ी ख़बर और सोशल मीडिया प्रोपोगैंडा से परेशान है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतेरस ने भी इस पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा था कि “समाज में फैल रहे नफ़रत के वायरस के ख़िलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए एकजुट होकर काम करना होगा।”

एंटोनियो गुतेरस ने कहा कि कोरोना की वजह से नफरत और बाहरी लोगों के भय या जेनोफोबिया की एक सुनामी सी आ गई है। इसे खत्म करने के लिए पुरजोर कोशिश करने की जरूरत है। जारी एक बयान में किसी देश का नाम लिए बिना गुतेरस ने कहा, “महामारी की वजह से नफरत, जेनोफोबिया और आतंक फैलाने की बाढ़ सी आ गई है। इंटरनेट से लेकर सड़कों तक, हर जगह बाहरी लोगों के खिलाफ नफरत बढ़ गई है। यहूदी-विरोधी साजिश की थ्योरियां बढ़ गई हैं और कोरोना वायरस से संबंधित मुस्लिम-विरोधी हमले भी हुए हैं।”

कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर दुनिया कई मोर्चो पर लड़ रही है। वैश्विक स्तर पर लोग स्वास्थ्य के मोर्च पर कोरोना वायरस से लड़ रहे हैं तो वहीं कुछ को नफरतों का भी शिकार होना पड़ रहा है। ऐसी ही घटनाओं को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव गुतेरस ने आगाह किया।

गुतेरस ने कहा कि प्रवासियों व शरणार्थियों को वायरस फैलाने का दोषी ठहराया जा रहा है और उन्हें इलाज देने से भी इनकार किया जा रहा है। उन्होंने वृद्धों से जुड़े उन मीम्स की भी आलोचना की जिसमें उन्हें ना केवल सबसे कमजोर बताया जा रहा है बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि बीमारी से इलाज के लिए इन पर सबसे ज्यादा पैसा खर्च करना होगा। ऐसा अधिकतर एशिया और यूरोप के निवासियों के साथ हो रहा है, जहां एक ख़ास मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर सोशल मीडिया पर नफ़रत भरी साज़िश की जा रही है। कई जगहों पर इसका असर एक समाजिक बहिष्कार, हिंसा और आधारभूत सुविधाओं से वंचित करने के रूप में देखने को मिलता है। हालाँकि अमेरिकी इतिहास से जुड़ा एक पन्ना भी इसका गवाह है, जो बताता है कि मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा समर्थित जातिवादी और सांप्रदायिक ज़हर लंबे समय से राजनीति का खाद-पानी है। लोगों को मेहनत करने के लिए प्रेरित करने के लिए यह अक्सर कहा जाता है कि रोम का निर्माण एक दिन मे नहीं हुआ था। इस तरह से यह भी सच है कि दंगे भी एक दिन में नहीं होते हैं। दंगे तभी होते हैं, जब लोगों के दिमाग को खास तरह की भावना और जहर से भर दिया जाता है। और फेंक न्यूज़ या जेनोफोबिया भी एक वैसा ही खास तरह का ज़हर है जो धीरे-धीरे लोगों से सोचने की शक्ति छीन लेता है और भावनाओं में बहकर किसी हिंसा का भागीदार बन जाता है।

हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए। हमें गलतियों को नहीं दोहराना चाहिए, खासतौर पर तब मानवीय जीवन दांव पर लगा हुआ हो। हमें बेशकीमती इंसानी जिंदगियों के साथ राजनीति नहीं करनी चाहिए।

इसी हालत पर गहरी चिंता ज़ाहिर करते हुए संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने भी अपील की है कि दुनिया भर में हेट स्पीच को खत्म करने के लिए पुरजोर कोशिश की जरूरत है। उन्होंने विशेष रूप से शिक्षण संस्थानों की जिम्मेदारी को रेखांकित किया और कहा कि इन संस्थानों को युवाओं को “डिजिटल साक्षरता” की शिक्षा देनी चाहिए क्योंकि वे कैप्टिव दर्शक हैं और जल्दी निराश हो सकते हैं।क्योंकि कोरोनावायरस महामारी और लॉकडाउन ने इस स्थिति को और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया है।

हालाँकि हेड स्पीच या फेंक न्यूज़ नामक वायरस से निपटने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस ने भी कई सराहनीय कदम उठाए हैं, जो यूजर्स को फेक न्यूज की पहचान करने में मदद करेगा।

इसमें व्हॉट्सऐप का नाम सबसे पहले आता है, जिसने इंटरनेशनल फैक्ट चेकिंग नेटवर्क (आईएफसीएन) के साथ जुड़कर फेक न्यूज को रोकने की मुहिम शुरू की है। अमेरिका के पॉयंटर इंस्टीट्यूट की ओर से बनाए गए इस नेटवर्क ने व्हॉट्सऐप के लिए एक चैटबॉट बनाया है, जिसकी मदद से खासतौर पर COVID-19 से जुड़ी फर्जी जानकारियों की पहचान कर उन्हें रोकने में मदद मिलेगी।

जानकारी के मुताबिक व्हॉट्सऐप यूजर्स इसके जरिए स्थानीय फैक्ट चेकर से जुड़ पाएंगे और फेक न्यूज या मैसेज की पहचान कर पाएंगे और ये भी आसानी से पता लगा पाएँगे कि कोरोना से जुड़ी जानकारी सही है या नहीं। इस चैटबॉट को अपने अकाउंट में शुरू करने के लिए यूजर्स को एक नंबर को अपने फोन में सेव में करना होगा। आईएफसीएन की ओर से जारी  ये नंबर है – +1 (727) 2912606. इस नंबर को सेव करके यूजर्स को सिर्फ ‘Hi’ टाइप कर व्हॉट्सऐप पर मैसेज करना होगा और ये चैटबॉट यूजर की एप्लिकेशन पर शुरू हो जाएगा। फिलहाल नेटवर्क की ओर से इसे सिर्फ अंग्रेजी में ही उपलब्ध कराया गया है। जल्द ही ये हिंदी में भी उलब्ध होगा।

लेकिन, ये कोई परमानेंट उपाय नहीं है। इसे जड़ से खत्म करना ही एक मात्र विकल्प है ताकि समय रहते खुशहाल समाज को खत्म होने से बचाया जा सके। हमारे पास इसके कई उदाहरण हैं, जिसका ख़ामियाज़ा समाज या किसी विशेष समुदाय को बड़ी क्षति के रूप में उठाना पड़ा है।

– डॉ. म. शाहिद सिद्दीक़ी
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