ईरान-अमेरिका की दुश्मनी कितनी पुरानी और कितना जरूरी ?

साल 2020 में न्यू ईयर के जश्न का खुमार अभी लोगों के दिमाग से उतरा भी नहीं था कि इराक से आई एक खबर ने सभी को चौंका दिया। वो खबर थी अमेरिकी नागरिकों की रक्षा के मद्देनजर किये गए ड्रोन हमले में ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के शक्तिशाली कमांडर जनरल कासिम सुलेमानी की मौत। हालांकि हमले में ईरान के शक्तिशाली हशद अल-शाबी अर्द्धसैनिक बल के उप प्रमुख और कुछ अन्य ईरान समर्थित स्थानीय मिलिशिया की भी मौत हो गई थी। वैसे अमेरिका और ईरान के बीच का तनाव जग-जाहिर है, और इस घटना ने आग में घी जैसा काम कर दिया फिर क्या था, ईरान ने कासिम सुलेमानी के अंतिम संस्कार के बाद इराक स्थित अमेरिका के इरबिल और अयान-अल-असद सैन्य ठिकानों पर ताबड़तोड़ मिसाइलें दाग दीं। हमले के बाद ईरान के दावे के पलट, ट्रंप ने कहा है कि इस हमले में किसी भी अमेरिकी को कोई नुकसान नहीं हुआ है। राष्ट्र को संबोधन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि ईरान के द्वारा जो मिसाइल अटैक किया गया था, उसमें अमेरिका की 0 कैजुएलिटी (कोई नुकसान नहीं) हुई है।

अमेरिका और ईरान में से किसका सच, सच है और कौन झूठ बोल रहा है ? इन दोनों ही सवालों का जवाब वक़्त की गर्त में छुपा है मगर सवाल बना हुआ है कि- आखिर इस दुश्मनी की बुनियाद कैसे और कब पड़ी? आइए इसे जानने के लिए चलते हैं शाह के जमाने में….

साल 1979 का वो दौर जब ईरान में पर्शियन एम्पायर की हुकुमत थी। वैसे तो 25 सौ साल तक इस देश पर कई राजाओं ने हुकूमत की, जिन्हें शाहों के नाम से जाना गया। 1950 में ईरान की जनता ने मोहम्मद मुसादिक के रूप में एक धर्मनिर्पेक्ष राजनेता को प्रधानमंत्री चुना।सत्ता में आते ही मुसादिक ने ईरान के तेल का फायदा सीधे अपने लोगों तक पहुंचाने के लिए ब्रिटिश और यूएस पेट्रोल होल्डिंग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। ये वो जमाना था जब दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध से उभर चुकी थी और अमेरिका को यकीन था कि उसके अंदर सुपर पॉवर बनने की पूरी सलाहियत भी है और मौका भी। लिहाज़ा 1953 में उसने ब्रिटेन के साथ मिलकर एक साज़िश के तहत मुसादिक का तख्तापलट कर दिया। और एक लोकतांत्रिक देश को राजशाही में तब्दील कर मोहम्मद रज़ा पहेलवी को ईरान का नया शाह बना दिया। 22 साल का शाह उस वक्त अपनी अय्याशियों और फिज़ूलखर्चियों के लिए मशहूर था। लोग बताते हैं कि आलम ये था कि उसकी पत्नी पानी नहीं दूध में नहाया करती थी, जबकि शाह का लंच रोज़ाना पेरिस से मंगवाया जाता था। इस बात की परवाह किए बगैर कि उसके अपने मुल्क में लोग भूखे मर रहे थे। पहेलवी राजवंश पर फिर से खतरा ना मंडराए और सत्ता पहेलवी राजवंश के ही पास रहे इसलिए पहेलवी राजवंश के आखिरी शाह मोहम्मद रज़ा पहेलवी ने अपनी एक बेरहम आतंरिक पुलिस सवाक की स्थापना की। जिसका एक ही काम था राजवंश के खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज़ को बड़ा बनने से पहले ही कुचल देना।

वहीं दूसरी तरफ दुनिया में ग्लोबलाइज़ेशन के दौर पर बाज़ारतंत्र यानि मार्केटाइजेशन हावी होने लगा था। मगर इसके लिए ज़रूरी था ईरान का पश्चिमी रंग में रंगना और शाह ने अगला क़दम यही उठाया। ईरान के बाज़ार को दुनिया के लिए खोल दिया, जिसका नतीजा ये हुआ कि तेहरान फैशन का हब बन गया। कहते हैं उस दौर में फैशन पेरिस से पहले तेहरान में आने लगा था औऱ नतीजा ये हुआ कि अय्याशी का कोई ऐसा सामान नहीं थी जो ईरान की राजधानी में मुहैय्या ना हो। 90 फीसदी शिया मुस्लिम और करीब 9 फीसदी सुन्नी मुस्लिमों को शाह पहेलवी का ये खुला रूप बिलकुल भी नहीं भा रहा था। उनके मुताबिक अमेरिका के दबाव में शाह पहेलवी ने ना सिर्फ मुल्क को अमेरिका के सामने गिरवी कर दिया है बल्कि ईरान की तमीज़ और तहज़ीब का भी बेड़ा गर्क कर दिया। करीब 10 सालों तक ईरान को पश्चिमी रंग में बदलते हुए अपनी आंखों से देखने के बाद लोग शाह पहेलवी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और इन लोगों की अगुवाई इस्लामिक लीडर आयतुल्लाह रुहुल्लाह खुमैनी कर रहे थे।
और आखिर में शाह की सुरक्षा एजेंसियों ने आयतुल्लाह खुमैनी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 18 महीनों तक जेल में कई तरह की यात्नाएं दी गईं। और सन 1964 में शाह की सरकार ने आयतुल्लाह खुमैनी के सामने जेल से आज़ादी के लिए उनके सामने दो शर्तें रखी। वो दो शर्ते थीं कि- खुमैनी शाह से माफी मांगे या देश छोड़ दें। आयतुल्लाह खुमैनी ने दूसरा रास्ता चुना और उन्हें देश से निकाल दिया गया। उस दिन के बाद से वो 14 साल ईरान से दूर रहे। पहले इराक, फिर तुर्की और फिर फ्रांस और इन सालों में खुमैनी वहीं से मोहम्मद रज़ा पहेलवी को सत्ता से बेदखल करने का खाका खींचते रहे।

और फिर 1971 का वो दौर जब ईरानी जनता में शाह के खिलाफ गुस्सा और आयतुल्लाह खुमैनी में उम्मीद नज़र आने लगी थी। फ्रांस में रहने के दौरान खुमौनी के संदेशों को मुल्क में पंपलेट और ऑडियो-वीडियो मैसेज के ज़रिए लोगों तक पहुंचाया जा रहा था। इसी दौरान ईरानी शहर पर्सेपोलिस में शाह ने अपने दोस्त मुल्कों की शान में एक शानदार पार्टी रखी। इसमें यूगोस्लाविया, मोनाको, अमेरीका और सोवियत संघ से आए उनके सियासी दोस्तों ने शिरकत की। जिसमें ईरान में उठते विरोध के स्वर को कुचलने की रणनीति पर चर्चा की गई। शाह की इस पार्टी को निर्वासन झेल रहे ईरानी नेता आयतुल्लाह खुमैनी ने शैतानों को जश्न कहा। जो काम आयतुल्लाह खुमैनी मुल्क में रहकर नहीं कर पाए, वो उन्होंने मुल्क से बाहर रहते हुए कर दिया। ईरान में हर तरफ एक ही आवाज थी- “आयतुल्लाह खुमैनी ज़िंदाबाद. शाह पहेलवी मुर्दाबाद”। लेकिन ऐसा कतई नहीं था कि ईरान में जो कुछ हो रहा था उससे दुनिया ने आंख बंद कर ली थी। खासकर अमेरिका ने. शाह पहेलवी का ईरान की सत्ता पर काबिज़ रहना अमेरिका के लिए उतना ही ज़रूरी थी, जितना कि उसके लिए सुपरपावर बने रहना। वो इसलिए क्योंकि सुपर पावर बने रहने की असली पावर उसे ईरान और फारस की खाड़ी से मिल रही थी। वैसे भी भौगोलिक रुप से ईरान की अहमियत इसलिए ज़्यादा है क्योंकि व्यापार की नज़रिए से और प्राकृतिक संसाधनों के मामले में दुनिया में इससे बेहतर जगह कोई नहीं है। इसलिए अकेले अमेरिका नहीं बल्कि इससे पहले ब्रिटेन और सोवियत यूनियन यहां अपने प्रभाव के लिए जद्दोजहद करते रहे हैं। इस इलाके में फारस और ओमान की खाड़ी को जोड़ने वाले समुद्र की चौड़ाई महज़ 55 किमी है। इसलिए इस इलाके में ईरान से पंगा लेने का मतलब है, तेल पर निर्भर मुल्कों के लिए खुदकुशी के बराबर है। क्योंकि दुनिया का 20 फीसदी तेल इसी रास्ते से गुज़रता है। जब तक शाह पहेलवी मुल्क पर काबिज़ रहे तब तक ईरान ना सिर्फ अमेरिका के लिए बाज़ार था बल्कि ज़्यादातर तेल और गैस संसाधनों पर उसका कब्ज़ा भी रहा।इस दौरान अमेरिका ने ईरान का जमकर इस्तेमाल किया और अपनी इसी दोस्ती के बल पर कई बड़े कूतनीतिक फैसले किए, जिसने उसे सुपर पावर से भी पावरफुल बना दिया।

और इस तरह इतिहास फिर से हमारे सामने अपने को दोहरा रहा है। यानि ईरान-अमेरिका की दुश्मनी की कहानी उसी दौर में पहुंच चुकी है जहां से शुरू हुई थी। साल 1979 में ईरान में भी जब इस्लामिक क्रांति हुई थी, इसके बाद सबसे पहला शिकार राजधानी तेहरान में अमेरिकी दूतावास ही बना था और हज़ारों लाखों छात्रों की भीड़ ने दूतावास पर चढ़ाई कर दी थी और वहां काम कर रहे अमेरिकी अधिकारियों और कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। और आज हमें ऐसा ही मंजर इराक की राजधानी में देखने को मिला जब ईरान समर्थिक सैनिकों ने राजधानी बगदाद स्थित अमेरिकी दूतावास को निशाना बनाया।

फिलहाल ईरान का कोई ताकतवर दोस्त नहीं है। बात अगर समर्थन की हो तो इस स्थिति में चीन या फिर रूस अपने प्रभुत्व के लिए बगावत का बिगुल फूंक सकते हैं और ईरान को ‘टेक्नीकल’ समर्थन दे सकते हैं। वैसे भी ईरान का शुमार विश्व के उन देशों में है जो अपने परमाणु कार्यक्रम पर तेजी के साथ काम कर रहा है और जिसने अपना पूरा पैसा इसमें झोंक दिया है। बात अगर वर्तमान की हो तो अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के चलते ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर लगाम पहले ही लग चुकी है। आज भले ही ईरान अमेरिका से मुकाबला करने को तैयार दिखता हो, मगर उस स्थिति में जब युद्ध होता है तो इस युद्ध का सीधा असर ईरान की अर्थव्यवस्था के साथ -साथ पूरी दुनिया पर पड़ेगा।

-डॉ. म शाहिद सिद्दीकी
Follow via Twitter @shahidsiddiqui

इसे शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *