फेक न्यूज नहीं है प्रेस की आजादी- प्रकाश जावडेकर

भारत में केवल एक मौका ऐसा आया, जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया। वह जून, 1975 में घोषित राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान था। तब मैं छात्र कार्यकर्ता था और हमने प्रेस की सेंसरशिप के खिलाफ सत्याग्रह किया था, जिसके लिए हमें 11 दिसंबर, 1975 को गिरफ्तार कर लिया गया और 26 जनवरी, 1977 तक सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा किए जाने तक जेल में ही रखा गया।

तब सेंसरशिप ही एकमात्र नियम था! प्रत्येक अखबार समूह के लिए एक सरकारी अधिकारी को तैनात किया गया था, जो अगले दिन प्रकाशित होने वाले सभी समाचारों की जांच करता था।

वह बिना किसी कारण के किसी भी समाचार सामग्री का प्रकाशन रोक सकता था। मेरे पिता, जो श्री लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित दैनिक केसरी’ के उप-संपादक थे, 25 जून को रात की ड्यूटी पर थे, जब आपातकाल लगाया गया। 26 जून की सुबह उन्होंने हमें बताया था कि कैसे प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई।

हर तरह की स्वतंत्रता पर, चाहे वह विचारों की स्वतंत्रता हो, बोलने की स्वतंत्रता हो, आयोजन की स्वतंत्रता हो या प्रेस की स्वतंत्रता, पाबंदी लगा दी गई थी। भारत में लोकतंत्र के लिए वह सबसे अंधकारमय दौर था। उस दौरान सभी स्वतंत्रताओं की बहाली के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कई याचिकाएं दायर की गईं, पर सभी व्यर्थ साबित हुईं। अदालतों ने यहां तक कह दिया कि शासकों को किसी का जीवन छीनने का भी पूरा अधिकार है।

भारत के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल श्री नीरेन डे द्वारा दिया गया वह सबसे कुख्यात तर्क था और अदालतों द्वारा उसका समर्थन किया गया था। यद्यपि लाखों लोगों ने 18 महीनों तक आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी, प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता के संबंध में वह अंधकार युग था। 1977 में आपातकाल हटा लिए जाने के तुरंत बाद हुए चुनावों में जनता पार्टी की जीत हुई और उस सरकार का पहला फैसला प्रेस और मीडिया की पूर्ण स्वतंत्रता को बहाल करने का था, जो तब से अब तक निर्बाध रूप से जारी है।

हालांकि, हाल में फेक न्यूज को आगे बढ़ाने की एक नई प्रवृत्ति उभर रही है और लोगों को जान-बूझकर गुमराह करने, भ्रम और बेचैनी पैदा करने के प्रयास किए जा रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों से फेक न्यूज केप्रसार में वृद्धि हुई है। इस खतरे को रोकने के लिए हमने पीआईबी में एक फैक्ट चेक यूनिट’ गठित की, जिसने फर्जी खबरों पर तत्काल संज्ञान लेकर तुरंत उसका खंडन करना भी शुरू कर दिया।

नतीजतन कई टीवी चैनलों और प्रिंट मीडिया को फर्जी समाचार सामग्रियों से पीछे हटना पड़ा, सही विवरण रखने पड़े और उन्होंने माफी भी मांगी। फेक न्यूज रोकने के लिए सरकार द्वारा जब यह पहल की गई, तब कुछ लोगों ने इसे ‘प्रेस की आजादी पर अंकुश’ लगाने का प्रयास कहते हुए आलोचना की।

मेरा सवाल है कि क्या प्रेस की आजादी की आड़ में फर्जी खबरें फैलाना सही है। इसका उत्तर है, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। कुछ उदाहरण सामने हैं। ट्विटर पर एक प्रसिद्ध वकील की तरफ से एक फर्जी खबर रखी गई कि उत्तर प्रदेश में एक महिला ने अपने पांच बच्चों को गोमती नदी में फेंक दिया, क्योंकि परिवार के पास भोजन नहीं था। पर पड़ताल में पाया गया कि महिला के घर में पर्याप्त भोजन था और अपने पति के साथ झगड़े के बाद उसने यह कदम उठाया। एक और खबर फैलाई गई कि अहमदाबाद में एक अस्पताल में मरीजों को धर्म के आधार पर अलग-अलग रखा गया था। यह भी गलत पाई गई।

सोशल मीडिया के माध्यम से एक और गलत खबर फैलाई गई, जिससे बांद्रा स्टेशन पर प्रवासी कामगारों और पुलिसकर्मियों के बीच झड़प की स्थिति पैदा हो गई थी। फेक न्यूज फैक्टरी ने खबर फैला दी थी कि प्रवासी श्रमिकों के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलेगी, जबकि ऐसी कोई आधिकारिक योजना नहीं थी। ऐसे ही एक लोकप्रिय चैनल ने फर्जी खबर दी कि राजस्थान में बीकानेर के एक सरकारी अस्पताल के सभी कर्मचारियों का कोविड-19 टेस्ट पॉजिटिव आया है। जब तथ्य सामने रखे गए, तो चैनल को वह खबर वापस लेनी पड़ी।

हमने यह भी पाया कि सोशल मीडिया पर केंद्र और राज्य सरकारों के प्रयासों को बदनाम करने के लिए फर्जी खबरें चलाई जाती हैं, जैसे दो प्रतिशत गरीबों को राशन की दुकानों से खाना मिल रहा है, पीडीएस दुकानों में राशन की आपूर्ति नहीं है, सरकारी कर्मचारियों के 30 प्रतिशत वेतन और पेंशन में कटौती होगी, एक लिंक पर क्लिक कीजिए और सरकार 1,000 रुपये का भुगतान करेगी, जून के अंत तक सरकार मुफ्त इंटरनेट उपलब्ध कराएगी, होटल अक्तूबर तक बंद रहेंगे आदि। ये सभी खबरें गलत पाई गईं।

फेक न्यूज का एक और भयानक पैटर्न है, जिससे घबराहट पैदा होती है। भारत द्वारा अमेरिका और अन्य देशों को एसीक्यू (हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन) का निर्यात किए जाने के बाद एक फर्जी खबर फैली कि भारत के पास अपने लोगों के लिए एचसीक्यू का स्टॉक ही नहीं बचा है।

अन्य फेक न्यूज पोस्ट भी सामने आए, जैसे तमिलनाडु द्वारा ऑर्डर किए गए टेस्टिंग उपकरण अमेरिका भेज दिए गए, ईशा फाउंडेशन में 150 विदेशी पॉजिटिव पाए गए, तिरुपुर में कपड़े की फैक्टरी में काम करने वाले 30,000 लोग फंसे थे, एक बीएमसी अधिकारी ने दावा किया है कि मुंबई में कम्युनिटी ट्रांसमिशन शुरू हो चुका है, जम्मू-कश्मीर में चिकित्सा आपूर्ति की कमी थी, मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में राशन ही नहीं था, प्रमुख समाचार पत्र ने अनुमान लगाया है कि मुंबई में अप्रैल के अंत तक संक्रमित लोगों की संख्या बढ़कर 40,000 और मई के मध्य तक 6.5 लाख तक पहुंच जाएगी।]

ये सभी खबरें फर्जी साबित हुईं और इन्हें वापस लेना पड़ा। कुछ फर्जी खबरों के प्रचार के पीछे द्वेषपूर्ण साजिश थी। जैसे एक खबर हिमाचल प्रदेश से आई कि दूध की आपूर्ति करने वाले मुस्लिम गुर्जरों का प्रवेश रोक दिया गया। हर कोई इससे सहमत होगा कि प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर फेक न्यूज के प्रसार की अनुमति नहीं दी जा सकती।
-लेखक केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन, सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं।

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