रघुवंश बाबू का जाना राजनीति से एक प्रतीक के जाने की तरह है”

राजनीति में आने से पहले रघुवंश बाबू बिहार के सीतामढ़ी के किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। राजनीति के गणित में वह कभी माहिर तो नहीं रहे, लेकिन बतौर केंद्रीय मंत्री अपने काम के गणित में वे पूरी तरह चाकचौबंद साबित हुए और मनरेगा के सफल क्रियान्वयन को लेकर उनकी विशेष पहचान बनी।

इसी 10 तारीख़ को मीडिया में एक लाइन के इस्तीफ़े वाली एक चिट्ठी सरेआम हुई और राजनीतिक चर्चायें गर्म होने लगीं। यह एक लाइन की चिट्ठी लालू प्रसाद यादव के नाम रघुवंश प्रसाद सिंह के पार्टी से इस्तीफ़े की चिट्ठी थी और इस्तीफ़े की वह एक पंक्ति थी, ‘जननायक कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद 32 वर्षों तक आपके पीठ पीछे खड़ा रहा, लेकिन अब नहीं।

पब्लिक डोमेन में यही उनका आख़िरी वाक्य बन गया। यह चिट्ठी उन्होंने दिल्ली स्थित एम्स से लिखी थी, जहां उन्हें फेफड़े में संक्रमण के कारण कुछ दिन पहले ही भर्ती कराया गया था।

हालात ज़्यादा बिगड़े, तो वेटिंलेटर रखा गया और 74 साल की उम्र में उन्होंने आज रविवार को दुनिया को अलविदा कह दिया।

रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपनी राजनीति की शुरुआत 1977 से की थी। वे बिहार के वैशाली संसदीय क्षेत्र से पांच बार सासंद रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए विपक्ष के सबसे मुखर आवाज़ रहे।

2004 में पहले यूपीए गठबंधन की सरकार में उन्हें आरजेडी कोटे से ग्रामीण विकास मंत्री बनाया गया और उनका प्रदर्शन शानदार रहा।
लालू प्रसाद यादव के प्रति प्रतिबद्धता

लालू प्रसाद यादव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बहुत ग़ज़ब की थी। जिस समय लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाले का आरोप लगा और उन्हें मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था, तब कई कद्दावर नेताओं को दरकिनार करते हुए मुख्यमंत्री पद पर लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी को बैठा दिया गया था।

इस पूरे प्रकरण पर रघुवंश प्रसाद सिंह की चुप्पी की तब खुलकर आलोचना हुई थी, लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह के लिए तब भी लालू प्रसाद यादव के इशारे ही ज़्यादा मायने रखते थे।

उनकी बातचीत में भी लालू की शैली वाला उनका अपना ही अंदाज़ था। जिस दौर में बिहार में विशेषाधिकार प्राप्त अगड़ों के ख़िलाफ़ वंचितों का आंदोलन शबाब पर था, रघुवंश प्रसाद सिंह उस दौर में अगड़ी जाति से होते हुए भी लालू के साथ मज़बूती के साथ खड़े थे।

2014 में जब पूरे बिहार में मोदी लहर अपने चरम पर थी, तब भी वे आरजेडी के साथ डटे रहे और मृत्यु तक वे लालू प्रसाद यादव और आरजेडी के साथ ही बने रहे।

धर्मेन्द्र कहते हैं, “उनसे जब भी पूछा जाता था कि देश में मोदी की लहर है और आपके लिए तो हर दरवाज़े खुले हैं, तो फिर क्यों नहीं किसी दूसरी पार्टी का रुख़ कर लेते हैं, तो उनका जवाब हमेशा यही होता था-कुछ भी हो जाय, सत्ता में रहें न रहें, मगर दलबदलु तो नहीं बनना है। उन्होंने अपनी यह प्रतिबद्धता ताज़िंदगी निभायी”।

जनता के रघुवंश बाबू
रघुवंश प्रसाद सिंह भारत की जातीय परंपरा के उस अगड़ी जाति से आते थे, जिसे बिहार में ‘बाबू साहब’ कहा जाता है। लेकिन, इनके अंदाज़ में इस बाबूसाहिबी की ठसक की गुंजाइश बिल्कुल ही नहीं थी।

वे अपने क्षेत्र की जनता के लिए सहज उपलब्ध रहते थे। आदित्य कहते हैं, “उन्हें कभी बॉडीगार्ड के साथ नहीं देखा गया। उनका अपना कोई ऑफ़िस तक नहीं था। वे पत्रकारों के लिए आसानी से उपलब्ध थे।

नुक्कड़ हो, कोई सभा हो या रघुवंश बाबू चाहे जहां कहीं भी हों, जैसे ही कुछ पत्रकार समय लिए बिना भी उनके पास पहुंच जाते, उनकी प्रेस कॉंन्फ़्रेंस वहीं शुरू हो जाती।

यही वजह है कि रघुवंश प्रसाद सिंह को रघुवंश बाबू इसलिए नहीं कहा जाता था कि वे जाति विशेष से आते थे, बल्कि इसलिए कि लोग उन्हें बेइंतहा चाहते थे और इसका आधार उनकी ईमानदारी, सजहता और सज्जन छवि से मिली अपार लोकप्रियता था।

राजनीति में आने से पहले रघुवंश बाबू बिहार के सीतामढ़ी के किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। राजनीति के गणित में वह कभी माहिर तो नहीं रहे, लेकिन बतौर केंद्रीय मंत्री अपने काम के गणित में वे पूरी तरह चाकचौबंद साबित हुए।

इसीलिए, रघुवंश बाबू का जो परिचय उनके संसदीय क्षेत्र के लोगों के बीच आम है, उनका परिचय उससे कहीं ज़्यादा ख़ास है। उनके परिचय में ख़ास क्या है, इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि 2009 की उस घटना को याद किया जाय,जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एडिटर्स गिल्ड के सवालों का सामना कर रहे थे।

सवाल पूछने वालों में से किसी नामचीन पत्रकार ने यह दिलचस्प सवाल भी पूछ लिया था, ‘आप अपने मंत्रियों में से किन मंत्रियों के प्रदर्शन से ज़्यादा ख़ुश हैं ?’

इस सवाल के जवाब में मनमोहन सिंह ने अपने जाने पहचाने अंदाज़,यानी चेहरे पर बिना ख़ुशी का कोई भाव दिखाये अपने अल्फ़ाज़ से अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए तीन मंत्रियों के नाम लिये थे। मगर,जो नाम पहला था,वह था-रघुवंश प्रसाद सिंह।

मनरेगा के पीछे की असली ताक़त रघुवंश बाबू
सवाल है कि रघुवंश बाबू का नाम मनमोहन सिंह के ज़ेहन और ज़बान पर बतौर पहला नाम क्यों आया। इसकी एक दास्तान है।

एक ऐसी दास्तान, जिसकी चर्चा भारत के आर्थिक योजनाओं के इतिहास में गर्व से की जाती रहेगी। असल में 2008 में दुनिया अमेरिका के प्राइम संकट के चलते गहरे आर्थिक मंदी का शिकार थी।

आर्थिक प्रगति के फ़र्राटा भरते भारत के क़दमों पर भी अचानक ही मंदी का ब्रेक लग गया था। जानकार उस आर्थिक संकट के ख़तरनाक नतीजे की भविष्यवाणी कर रहे थे।

इसी बीच मंदी से निपटने के लिए कई क़दम उठाये गये। लेकिन, जिन कई उपायों को इस संकट से कामयाबी के साथ निनपटने का श्रेय मिला था, उनमें सबसे बड़ा उपाय, महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के तहत लागू की जाने वाली योजना यानी संक्षेप में मनरेगा थी।

कोई शक नहीं कि अन्य योजनाओं की तरह यह योजना भी ख़ास तौर पर इकाई स्तर पर भ्रष्टाचार का शिकार रही, मगर इस भ्रष्टाचार के मुक़ाबले इसकी कामयाबी कहीं ज़्यादा बड़ी थी। उस समय यूपीए-1 का कार्यकाल था और मनरेगा जिस मंत्रालय के अंतर्गत चलाया जा रहा था, उसका नेतृत्व रघुवंश बाबू कर रहे थे।

मनरेगा के बेहतरीन कार्यान्वयन को लेकर रघुवंश बाबू के क़ायल न सिर्फ़ तत्कालीन प्रधानमंत्री थे, बल्कि उस समय की ब्यूरोक्रेसी में भी उन्हें लेकर एक क्रेज़ था।

यूपीए-1 के महारथी मंत्री यूपीए-2 में रिपीट नहीं हो पाये
रघुवंश बाबू यूपीए-1 के कद्दावर और कामयाब मंत्रियों में से एक थे, इसके बावजूद वे यूपीए-2 में रिपीट नहीं हो पाये।

इसका कारण मनमनोहन सिंह का रघुवंश बाबू से मोहभंग बिल्कुल ही नहीं था, बल्कि यूपीए-2 का घटक होना लालू प्रसाद यादव को मंज़ूर नहीं था और वे इस घटक से बाहर हो गये थे।

इस घटक से बाहर होने के कई कारणों में से एक वजह तो यह थी कि लालू प्रसाद यादव ख़ुद ही 2009 का चुनाव हार गये थे। हालांकि रघुवंश बाबू अपने संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीत गये थे और पिछले प्रदर्शन को देखते हुए मनमोहन सिंह सरकार की ओऱ से उन्हें मंत्री पद का ऑफ़र भी दिया गया था, लेकिन लालू प्रसाद यादव के प्रति उनकी वफ़ादारी इस ऑफ़र को मंज़ूर करने की इजाज़त नहीं दे रही थी और उन्होंने उस ऑफ़र को इस वफ़ादारी के नाम पर ही ठुकरा दिया था।

आरजेडी पर पैनी नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि लालू प्रसाद यादव ख़ुद का चुनाव हार जाने के कारण संसद में नज़र नहीं आ सकते थे, जबकि रघुवंश बाबू बतौर मंत्री ज़्यादा सुर्खियां बटोर सकते थे और लालू प्रसाद यादव को अपनी पार्टी में ख़ुद से बड़ा कोई क़द चाहिए नहीं था।

इसलिए उन्होंने यूपीए-2 का हिस्सा होना मुनासिब नहीं समझा था और रघुवंश बाबू यूपीए-2 में रिपीट नहीं हो पाये थे।

लगातार दो चुनावों में हार
चारा घोटाले में सज़ा सुनाये जाने के बाद लालू प्रसाद के चुनाव लड़ने पर रोक लग गयी। इसलिए 2014 के चुनाव में वे बतौर उम्मीदवार भाग नहीं ले सके।

हालांकि ज़मानत पर बाहर आये लालू प्रसाद यादव ने धुआंधार प्रचार किया, लेकिन चुनाव में उनकी पार्टी की क़रारी शिकस्त हुई और साथ ही रघुवंश बाबू भी अपनी सीट हार गये।

लेकिन, जब बाद के दिनों में आरजेडी कोटे से राज्यसभा में अपने उम्मीदवार को भेजने की बात आयी, तब भी रघुवंश बाबू को नज़रअंदाज़ करके दूसरे लोगों को राज्यसभा भेज दिया गया।

माना जाता है कि वे आरजेडी के किसी भी नेता से बेहतर राज्यसभा में आरेजेडी का प्रतिनिधित्व कर सकते थे, क्योंकि आंकड़े उनकी ज़ुबान पर होते थे और तथ्यों पर उनकी पैनी नज़र होती थी।

इसका प्रदर्शन वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को क़दम-क़दम पर घेरने में बख़ूबी कर चुके थे। ऊपर से पार्टी सुप्रीमो के प्रति उनकी असंदिग्ध वफ़ादारी भी थी।

इसके बावजूद राज्यसभा में वे नहीं भेजे गये और यहीं से रघुवंश बाबू राष्ट्रीय राजनीति से ओझल भी होते गये।

2014 के बाद रघुवंश बाबू को राज्यसभा में नहीं भेजा जाना एक तरह से दिल्ली की राजनीति से उन्हें किनारे लगाने के तौर पर देखा गया। इस बीच दो घटनायें और घटीं।

एक तो लालू प्रसाद यादव को जेल जाना पड़ा, और दूसरा कि जेल जाने के कुछ साल पहले से ही वे अपने बेटों को आगे बढ़ाते रहे थे।

उनकी पार्टी के पुराने लोग कमज़ोर पड़ते जा रहे थे। लालू के बाद पार्टी की कमान संभालने वाले तेजस्वी यादव नये लोगों के साथ अपनी टीम बनानी शुरू कर दी थी। इस नयी टीम में रघुवंश बाबू जैसे पुराने लोग तेज़ी से अपनी अहमियत खोने लगे।

रघुवंश बाबू की राजनीति पर क़रीब से नज़र रखने वाले वैशाली के स्वतंत्र पत्रकार, प्रकाश मधुप कहते हैं, ‘रघुवंश बाबू की छवि एक ऐसे राजनेता की रही है,जिसने अपने क्षेत्र के विकास पर पर्याप्त ध्यान तो नहीं दिया, लेकिन मंत्री बनकर राष्ट्रीय स्तर पर उनका अच्छा काम करने का रिकॉर्ड रहा।

लोग उनसे जुड़ाव महसूस करते थे, क्योंकि बेहद पढ़े-लिखे होने के बावजूद वे सहज थे, लोगों की ज़बान बोलते थे, लोगों के लिए खड़े रहते थे और जनता से बेहतर संवाद के बूते छोटी-छोटी समस्याओं पर उनकी नज़र रहती थी।

जहां तक उनके लगातार दो चुनाव हारने की बात है, तो इसके पीछे का कारण उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं,बल्कि एक बड़ा फ़ैक्टर मोदी लहर था।

उनका हाशिये पर रह रहे लोगों से जुड़ाव को लेकर प्रकाश मधुप कहते हैं, “रघुवंश बाबू के दिल-ओ-दिमाग़ में हमेशा यह बात बनी रही कि वैशाली की ज़मीन जनतंत्र की जननी रही है, इसलिए पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन पटना में झंडा फहराये जाने के साथ-साथ उसी समय पर वैशाली में भी झंडा फहराया जाये।

इस मांग के लिए उन्होंने वैशाली से पटना तक के लिए पैदल यात्रा भी की। उनकी इस मांग से किसी को सरोकार नहीं था।

मगर, उनका सरोकार इस क़दर था कि वे चाहे कहीं भी हों, हर साल छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त को वह वैशाली आ जाते थे और आम लोगों की जनसभा के बीच पांच दलित पुरुष और पांच दलित महिला के हाथ से झंडोत्तोलन करवाते थे।

उनका मानना था कि असली आज़ादी के हक़दार यही समुदाय है।

उपेंद्र चौधरी

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