अफ़गानिस्तान में ‘ग्रेट गेम’ और अमेरिका का सेल्फ़ गोल !

उन्नीसवीं सदी में रुसी और ब्रिटिश साम्राज्यों और २०वीं सदी में अमेरिका और सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन पर अपनी -अपनी लड़ाई लड़ी।

जैसे ही तालिबान ने रणनीतिक फ़तह हासिल की , अब पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में बड़ा गेम खेलने को तैयार है जबकि उसका दोस्त चीन भी इस क्षेत्र पर अपनी पकड़ मज़बूत करने की फ़िराक़ में है।

हालाँकि, ग्रेट गेम के आख़िरी प्लेयर अमेरिका ने २० साल बाद आख़िरकार सेल्फ़ गोल कर वापस लौट गया। हालाँकि, अमेरिका और इससे पहले ब्रिटेन और रूस ने अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं की वजह से उसे तबाह कर दिया।

आज जब अफ़गानिस्तान पर पश्चिम के राजनेताओं द्वारा जो मगरमच्छ के आंसू बहाए जा रहे हैं, उनका प्रचार इतना है कि इसके नीचे असली इतिहास दब जा रहा है। इस पीढ़ी से कुछ वक़्त पहले अफ़गानिस्तान ने अपनी आज़ादी ली थी, जिसे अमेरिका, ब्रिटेन और उनके सहयोगी देशों ने तबाह कर दिया।

अतीत के झरोखे से…

इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि 1978 में एक आज़ादी के आंदोलन में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ अफ़गानिस्तान (PDPA) ने मोहम्मद दाऊद की तानाशाही को उखाड़ फेंका था।

यह बहुत लोकप्रिय क्रांति थी, जिससे ब्रिटेन और अमेरिका भौंचक्के रह गए थे। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक़, काबुल में रहने वाले विदेशी पत्रकार यह देखकर “हैरान थे कि हर अफ़गानी, जिसका उन्होंने इंटरव्यू किया, वो इस तख़्तापलट से खुश था।” वॉल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा, “1,50,000 लोग नए झंडे का सम्मान करने पहुंचे… कार्यक्रम में भागीदार लोग भीतर से उत्साह से भरे दिख रहे थे।

वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा, “सरकार के प्रति अफ़गान वफ़ादारी पर मोटा-मोटी सवाल उठाए जा सकते हैं।” पंथनिरपेक्ष, आधुनिकतावादी और बड़े हद तक समाजवादी सरकार ने दूरदृष्टियुक्त सुधारों की घोषणा की, जिसमें महिलाओं और अल्पसंख्यकों को समानता के अधिकार दिए गए थे।

राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया और पुलिस फाइलों को सार्वजनिक ढंग से जलाया गया।राजशाही के अंतर्गत औसत अफ़गानी की उम्र 35 साल थी, तीन में से हर एक बच्चा शैशव काल में मर जाता था। 90 फ़ीसदी आबादी साक्षर ही नहीं थी। नई सरकार मुफ़्त में स्वास्थ्य सुविधा लेकर आई और बड़े स्तर पर एक साक्षरता कार्यक्रम भी चलाया गया।

महिलाओं को यहां अभूतपूर्व अधिकार मिले। 1980 के आखिर तक यूनिवर्सिटी के आधे छात्रों में महिलाएं हो चुकी थीं, अफ़गानिस्तान के कुल डॉक्टरों में 40 फ़ीसदी, कुल शिक्षकों में 70 फ़ीसदी और कुल सरकारी नौकरों में 30 फ़ीसदी महिलाओं की भागेदारी थी।

यह बदलाव इतने क्रांतिकारी थे कि इनका फायदा मिलने वालों को आज भी यह याद हैं। सायरा नूरानी एक महिला सर्जन हैं, जो 2001 में अफ़गानिस्तान से भाग गई थीं, वह कहती हैं “हर लड़की हाई स्कूल और यूनिवर्सिटी जा सकती थी।

हम जहां चाहते थे, वहां जा सकते थे, जो चाहते थे, वो पहन सकते थे…. हम कैफे जाते, हर शुक्रवार को नई हिंदी फिल्में देखने सिनेमा जाते….जब मुजाहिद्दीनों ने जीतना शुरू किया, तभी सारी चीजें गड़बड़ होना शुरू हो गईं। यह वह लोग थे, जिन्हें पश्चिम समर्थन दे रहा था।

अमेरिका को इस बात से दिक्कत थी कि PDPA सरकार का समर्थन सोवियत रूस कर रहा था। लेकिन इसके बावजूद अफ़गानिस्तान की सरकार कभी कठपुतली सरकार नहीं रही, ना ही वहां राजशाही के खिलाफ़ हुई क्रांति को सोवियत समर्थन हासिल था। जबकि अमेरिकी और ब्रिटिश प्रेस यही दावा करते रहे हैं।

राष्ट्रपति जिमी कार्टर के गृह सचिव सायरस वेंस ने अपने संस्मरण में लिखा, “हमें तख़्तापलट में सोवियत संघ के हाथ के कोई सबूत नहीं मिले।”

उसी प्रशासन में कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बिगिनिएव ब्रजेजिंस्की थे। वह पोलैंड से आए प्रवासी थे और पागलपन की हद तक कम्यूनिस्ट विरोधी और नैतिक अतिवादी थे। उनका अमेरिकी राष्ट्रपतियों पर प्रभाव 2017 में उनकी मृत्यु तक जारी रहा।

3 जुलाई 1979 को अमेरिकी लोगों और कांग्रेस को बिना बताए, कार्टर ने अफ़गानिस्तान की पहली पंथनिरपेक्ष, प्रगतिशील सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए चलाए जाने वाले गुप्त ऑपरेशन के लिए 500 मिलियन डॉलर का आवंटन कर दिया।

इस पैसे का इस्तेमाल जनजातीय और धार्मिक उग्रपंथी मुजाहिदीनों को खरीदने, उन्हें रिश्वत देने और हथियारबंद करने के लिए किया गया। अपने अर्द्ध सरकारी इतिहास में वाशिंगटन पोस्ट के रिपोर्टर बॉब वुडवार्ड ने लिखा है कि CIA ने 70 मिलियन डॉलर सिर्फ़ रिश्वत देने पर ही ख़र्च कर दिए।

उन्होंने एक सीआईए एजेंट “गैरी” और अफ़गान जंगी सरदार एमनियात मेल्ली की मुलाकात का वर्णन किया है: “गैरी ने मेज पर नग़दी का एक बंडल रखा, 100 डॉलर के नोटों में 5 लाख डॉलर इस बंडल में मौजूद थे।

उसे लगा कि आमतौर पर दी जा रही 2 लाख डॉलर से ज़्यादा की रकम देना ज़्यादा प्रभावशाली रहेगा, जिसका मतलब होगा, हम यहां हैं, हम गंभीर हैं। हम जानते हैं कि तुम्हें इसकी जरूरत है। गैरी जल्द ही सीआईए मुख्यालय से 10 मिलियन डॉलर नगदी की मांग करते हैं, जो उन्हें जल्द मिल जाती है।”

दुनियाभर की मुस्लिम दुनिया से भर्ती किए गए नौजवानों वाली अमेरिका की इस गुप्त सेना को पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी, सीआईए और ब्रिटेन की एमआई-6 द्वारा पाकिस्तान में प्रशिक्षण दिया गया। दूसरे लोगों को ब्रुकलिन, न्यूयॉर्क के इस्लामिक कॉलेज से भर्ती किया गया था। यह कॉलेज ट्विन टॉवर्स के पास ही स्थित था, जिन्हें 2001 में अल-कायदा ने गिरा दिया था। इसी तरह एक नौजवान को भर्ती किया गया था, जिसका नाम ओसामा बिन लादेन था।

यहां मध्य एशिया में इस्लामिक कट्टरता फैलाने और सोवियत संघ को अस्थिर करने का लक्ष्य था। अगस्त, 1979 में काबुल में अमेरिकी दूतावास ने कहा, “अमेरिका के व्यापक हित….PDPA की सरकार गिरने से पूरे होंगे, भले ही अफ़गानिस्तान में भविष्य के सामाजिक और आर्थिक सुधारों के लिए इसका कोई भी नतीज़ा हो।”

अमूमन ऐसा बहुत कम होता है, जब इस तरह के नकारात्मक लक्ष्य को इतने खुले ढंग से कहा गया हो। अमेरिका जहां कह रहा था कि एक प्रगतिशील अफ़गान सरकार और अफ़गान महिलाओं के अधिकार की उसे कोई परवाह नहीं है।

6 महीने बाद, अमेरिका द्वारा पैदा किए गए जिहादियों के जवाब में सोवियत ने पहला आत्मघाती कदम उठाया। CIA द्वारा उपलब्ध कराई गई स्टिंगर मिसाइल के ज़रिए मुजाहिदीनों ने रेड आर्मी को अफ़गानिस्तान से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया।

अपने आप को नदर्न अलायंस (उत्तरी गठबंधन) कहने वाले मुजाहिदीनों में उन जंगी सरदारों का प्रभुत्व था, जो हेरोइन व्यापार पर नियंत्रण रखते थे और ग्रामीण महिलाओं को आतंकित करते थे।

तालिबान एक अति-शुद्धिकरणवादी धड़ा था, जिसके मुल्ला काले कपड़े पहनते थे, जो डकैती, रेप और हत्या के लिए सजा देते थे, लेकिन उन्होंने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से गायब कर दिया।
1992 में PDPA सरकार को तहस-नहस कर दिया गया। राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह मदद मांगने के लिए संयुक्त राष्ट्र गए। लेकिन वापसी के बाद उन्हें एक स्ट्रीटलाइट से लटका दिया गया।

1898 में लॉर्ड कर्जन ने कहा था, “मैं मानता हूं कि अलग-अलग देश शतरंज के बोर्ड पर हैं। जहां दुनिया में प्रभुत्व के लिए एक बड़ा खेल खेला जा रहा है।” यहां भारत के वायसराय अफ़गानिस्तान का जिक्र कर रहे थे। एक शताब्दी बाद प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने थोड़े से अलग शब्दों का उपयोग किया। 9/11 के हमले के बाद उन्होंने कहा, “यह कब्जा करने का वक़्त है। केलिडोस्कोप बुरे तरीके से हिल चुका है। अभी टुकड़े टूटे हुए हैं। लेकिन जल्द ही वे अपनी जगह ले लेंगे।

उनके अपनी जगह लेने से पहले, हमें इस दुनिया का पुनर्गठन अपने आसपास करना है।”

अफ़गानिस्तान पर उन्होंने कहा, “हम मुंह नहीं मोड़ेंगे, लेकिन तुम्हारे इस दयनीय अस्तित्व, जो तुम्हारी गरीब़ी है, उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता खोजेंगे।” ब्लेयर ने अपने मार्गदर्शक अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के विचारों को दोहराया, जिन्होंने बम धमाकों के पीड़ितों से ओवल ऑफिस से बात करते हुए कहा था, “अफ़गानिस्तान के दमित लोग अमेरिका की उदारता से परिचय पाएंगे…..जब हम सैन्य क्षेत्रों को निशाना बना रहे हैं, तब हम खाना, दवाइयां और आपूर्ति भी भूखे और दुख में रह रहे लोगों के लिए गिरा रहे हैं…..”

यहां लगभग हर शब्द झूठा था। चिंता की घोषणा, साम्राज्यवादी वहशियत का क्रूर उदाहरण था। 2001 में अफ़गानिस्तान कठिन स्थिति में था और पाकिस्तान की दिशा से आने वाले आपात राहत काफ़िलों पर निर्भर था। इस हमले से करीब़ 20,000 लोगों की अप्रत्यक्ष मौत हुई है, क्योंकि सूखे के पीड़ित के लिए आने वाली रसद रोक दी गई और लोग अपने घरों से भाग गए।

उस दौरान काबुल में कचरे के ढेर में जिंदा अमेरिकी क्लस्टर बम पाया जाता था, जिसे आसमान के रास्ते गिराया गया पीला राहत पैकेज मान लिया गया था। यह बम खाना खोजने वाले भूखे बच्चों को निशाना बनाते थे।

दरअसल, हकीकत में अफ़गानिस्तान पर हमला एक फर्जीवाड़ा था। 9/11 की पृष्ठभूमि में तालिबान ने खुद को ओसामा बिन लादेन से अलग कर लिया था। कई मायनों में तालिबान खुद अमेरिकी ग्राहक था, जिसने बिल क्लिंटन के प्रशासन में एक अमेरिकी ऑयल कंपनी कंसोर्टियम को 3 बिलियन डॉलर की प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बनाने की अनुमति दी थी। इसके लिए क्लिंटन प्रशासन के साथ गुप्त समझौता किया गया था।

२०१० में बहुत गुप्त तरीके से तालिबानी नेताओं को अमेरिका बुलाया गया था और यूनोकाल कंपनी के सीईओ के टेक्सास स्थित मेंशन और सीआईए द्वारा वर्जीनिया के मुख्यालय में उनके साथ बैठक की गई थी। वहां समझौता करवाने वाले एक शख़्स डिक चेनी थे, जो बाद में जॉर्ज बुश के उपराष्ट्रपति बने।

तेज़ी से बदलती परिस्थितियाँ और भारत की ‘वेट एंड वॉच’ पॉलिसी
आइए अब चलते हैं वर्तमान में, जहां अफगानिस्तान पर तालिबान के तेजी से कब्जे को लेकर दुनिया भर के देश हैरान है। खासतौर पर वे देश जिन्होंने अफगान में सालों से निवेश किया।

अफगानिस्तान में भारी-भरकम निवेश करने वाले देशों में से एक भारत भी है, जिसने यहां शांति को बढ़ावा देने के लिए कई विकास परियोजनाएं शुरू कीं। हालांकि, अब तालिबानी कब्जे के बाद यह विचार करने वाली बात है कि बीते दो दशकों में किए इस निवेश से भारत के हाथ क्या लगा है। साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान के नए संसद भवन का उद्घाटन किया था। यह संसद भवन भारत ने 9 करोड़ डॉलर यानी आज की तारीख में करीब 660 करोड़ रुपये से ज्यादा की लागत से बनवाया था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संसद भवन को अफगानिस्तान में लोकतंत्र के प्रति समर्पित किया था। इसके बाद अफगान के 19वीं सदी में बने स्टोर पैलेस की मरम्मत के बाद उसका पर्दार्पण भी पीएम मोदी ने ही किया था। यह महल 1920 के दशक में अफगान के किंग अमनुल्ला का आवास हुआ करता था। साल 2016 में पीएम मोदी ने अफगानिस्तान के सलमा डैम का उद्घाटन किया।

अन्य राज्यमार्ग और इमारतों से जुड़ी परियोजनाओं को भी जोड़ लिया जाए तो भारत ने कुल 3 अरब डॉलर अफगानिस्तान में निवेश किए हैं। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान को आर्थिक मदद देने वाले सबसे बड़े क्षेत्रीय सहयोगियों में से एक है।

मोदी सरकार की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पॉलिसी का एक बड़ा लक्ष्य क्षेत्र में शांति और ऐसे द्विपक्षीय रिश्ते बनाए रखना है, जो दोनों के लिए लाभकारी हों। भारत सरकार ने भूटान से लेकर नेपाल तक में विदेश मंत्रालय और अन्य विभागों के जरिए अरबों रुपये का निवेश किया हुआ है।

ठीक, अफगानिस्तान में भी भारत के निवेश का सबसे बड़ा मकसद यही था कि वहां तालिबान का कब्जा न हो और देश पाकिस्तान के हाथों की कठपुतली न बने। हालांकि, अब ऐसा हो गया है। भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती कश्मीर में शांति बनाए रखना है।

सुरक्षा एजेंसियां लगातार तालिबानी कब्जे के बाद कश्मीर पर नजर रखे हुए है। ऐसी आशंका है कि पाकिस्तान तालिबान के लड़ाकों के जरिए जम्म-कश्मीर में अशांति फैलाने की कोशिश कर रहा है।

अफगानिस्तान में अरबों रुपये के निवेश के बावजूद भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह उस देश में कूटनीतिक फैसले लेने में शामिल हो। तालिबान के राज के बाद अब अफगानिस्तान दक्षिण और मध्य एशिया के लिए पहले से भी बड़ा खतरा बन सकता है, लेकिन फिलहार भारत के पास ऐसा होने से रोकने के लिए भी कोई विकल्प नहीं है।

बीते गुरुवार विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि भारत ने सिर्फ अफगानिस्तान के साथ दोस्ती में निवेश किया और उसे इसका फल मिलेगा। उन्होंने यह भी कहा कि अभी के लिए भारत अफगानिस्तान को लेकर भारत का रुख ‘वेट एंड वॉच’ वाला होगा।

लेकिन अगर भारत कोई ठोस निर्णय नहीं लेता है तो अफगानिस्तान में उसकी मौजूदगी कमजोर पड़ सकता है। इतना ही नहीं निवेश के अलावा भारत को बड़े प्रोजेक्ट्स मिलने में भी कठिनाई हो सकती है।

इनमें से एक 11 अरब डॉलर का हाजीगक माइन प्रोजेक्ट भी है। साथ ही ईरान में चाहबार पोर्ट प्रोजेक्ट पर भी इसका असर पड़ सकता है। दरअसल, इस पोर्ट के जरिए पाकिस्तान के रास्ते जाए बिना ही अफगानिस्तान को मध्य एशिया से जोड़ा जा सकता है। पहले से ही इस परियोजना पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और अब तालिबान राज ने इसके लिए रास्ता और मुश्किल कर दिया है।

जबकि चीन वहां मजबूत स्थिति में है। अफगानिस्तान के माइनिंग प्रोजेक्ट्स भी चीन को मिलने की चर्चाएं हैं। हालांकि, चीन की इस सफलता का एक बड़ा कारण तालिबान के साथ उसकी रणनीतिक चर्चाएं हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि अब दुनिया में इस बात की चर्चा है कि कैसे तालिबान के आने से चीन को फायदा होगा। वहीं, भारत के लिए इसे चुनौती समझा जा रहा है।

– डॉ. म. शाहिद सिद्दीकी

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