एक जमाना था, जब गांव का चौकीदार करता था होलिका दहन …

 “होलिका दहन के बाद शुरू होता था होली का हुड़दंग। गांव के लंबरदार (काश्तकार) मरे मवेशियों की हड्डियां, मल-मूत्र व गंदा पानी अपने साथ लाकर अपने यहां चौहाई (मजदूरी) करने वाले दलित के दरवाजे और आंगन में फेंक देते थे।

उत्तर प्रदेश में एक इलाका है बुंदेलखंड, जहां हर तीज-त्योहार मनाने के अलग-अलग रिवाज रहे हैं। अब होली को ही ले लीजिए।

करीब एक दशक पहले तक होलिका दहन के बाद रात में गांवों के ‘लंबरदार’ अपने यहां ‘चौहाई’ (मजदूरी) करने वाले चुपके से दलितों के घरों में मरे मवेशियों की हड्डी, मल-मूत्र और गंदा पानी फेंका करते थे, इसे ‘हुड़दंग’ कहा जाता रहा है।

लेकिन इसे कानून की सख्ती कहें या सामाजिक जागरूकता, यह दशकों पुराना गैर सामाजिक रिवाज अब बंद हो चुका है।

होली में ‘हुड़दंग’ सभी से सुना होगा, लेकिन बुंदेली हुड़दंग के बारे में शायद ही सबको पता हो। एक दशक पहले तक महिला और पुरुषों की अलग-अलग टोलियों में ढोलक, मजीरा और झांज के साथ होली गीत गाते हुए होलिका तक जाते थे और गांव का चौकीदार होलिका दहन करता था।

यहां खास बात यह थी कि होलिका दहन करने से पूर्व सभी महिलाएं लौटकर अपने घर चली आती थीं। तर्क दिया जाता था कि होलिका एक महिला थी, महिला को जिंदा जलते कोई महिला कैसे देख सकती है?

होलिका दहन के बाद शुरू होता था ‘होली का हुड़दंग’। गांव के लंबरदार (काश्तकार) मरे मवेशियों की हड्डियां, मल-मूत्र व गंदा पानी अपने साथ लाकर अपने यहां चौहाई (मजदूरी) करने वाले दलित के दरवाजे और आंगन में फेंक देते थे।

सुबह दलित दंपति उसे समेट कर डलिया में भर कर और लंबरदार को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए उनके दरवाजे में फेंक देते। दलित मनचाही बख्शीस (इनाम) मिलने के बाद ही हुड़दंग का कचरा उठाकर गांव के बाहर फेंकने जाया करते थे। दलितों को बख्शीस के तौर पर काफी कुछ मिला भी करता था।

बांदा जिले के तेंदुरा का कलुआ बताते हैं कि उनके बाबा पंचा को लंबरदार नखासी सिंह ने हुड़दंग की बक्शीस में दो बीघा खेत हमेशा के लिए दे दिया था, जिस पर वह आज भी काबिज हैं। अब वह किसी की चौहाई नहीं करते।

हालांकि ‘हुड़दंग’ जैसी इस गैर सामाजिक परंपरा की कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पुरजोर मुखालफत भी की और इसके खिलाफ एक अभियान चलाया। इनमें ‘जल पुरुष’ राजेंद्र सिंह के शिष्य सुरेश रैकवार (निवासी तेंदुरा गांव) का नाम सबसे आगे आता है।

बकौल सुरेश, “हुड़दंग एक गैर सामाजिक परंपरा थी, जो मानवाधिकारों का भी उल्लंघन करती थी। वह कहते हैं कि इसकी आड़ में दलितों की आबरू से भी खिलवाड़ किया जाता था जिसका विरोध करने पर कथित लंबरदार जानलेवा हमला भी कर देते थे। तेंदुरा गांव में ही हुड़दंग का विरोध करने पर अमलोहरा रैदास को गोली मार दी गई थी, जिससे उसे अपना एक हाथ कटाना पड़ा था।”

बांदा के पुलिस अधीक्षक भी इसे सख्ती से निपटने को तैयार हैं।  पुलिस अधीक्षक कहते हैं, “होली का त्योहार भाईचारे का त्योहार है, प्रेम से रंग-गुलाल लगाया जा सकता है। कानून हुड़दंग (उपद्रव) करने की इजाजत नहीं देता है। अगर किसी ने भी होली की आड़ में गैर कानूनी कदम उठाया तो उसकी खैर नहीं होगी। सभी थानाध्यक्षों और गांवों में तैनात चौकीदारों को अराजकतत्वों पर कड़ी नजर रखने को कहा गया है।”

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