कश्मीर- डीडीसी चुनाव के नतीजे खतरनाक धार्मिक धुव्रीकरण की तरफ इशारा

मतों का रुझान चिंताजनक नजर आया है, जो जम्मू एवं कश्मीर में बढ़ते धार्मिक ध्रुवीकरण का संकेत देते हैं।

जम्मू कश्मीर में हाल ही में घोषित हुए जिला विकास परिषद (डीडीसी) के चुनाव परिणामों का अनुसरण तत्कालीन राज्य के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्सुकता के साथ किया जाएगा।

इन चुनावों को जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति के वास्तविक उन्मूलन एवं अगस्त 2019 में इसके दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजन के बाद पहले बड़े चुनावी दंगल के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है।

डीडीसी चुनावों के महत्व को कम करके नहीं आँका जा सकता है। यह पहली बार था जब जम्मू और कश्मीर के लोगों ने संविधान के 73वें संशोधन के तहत नए प्रशासनिक संस्थानों को चुनने का काम किया है।

इसका उजला पक्ष यह है कि जम्मू एवं कश्मीर में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों के जरिये चुने जाने के महत्व के बारे में संस्थागत सबक को बरक़रार रखा गया है। सारे देश भर में भाजपा द्वारा खुलकर चुनावी अभियानों के आयोजन की वर्तमान रणनीति के चलते कुछ हलकों में यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि इन चुनावों में भाजपा के पक्ष में धांधली की जा सकती है।

हकीकत यह है कि जम्मू एवं कश्मीर में चुनावों में धांधली की बात अतीत में कोई असामान्य बात नहीं थी, जिसने इन आशंकाओं को बल दिया था।

जम्मू-कश्मीर में पहली बार निष्पक्ष चुनाव 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अगुआई वाली जनता पार्टी के तहत संपन्न हुए थे। जनता पार्टी ने उस दौरान तत्कालीन भारतीय जनसंघ के साथ मिलकर सत्ता साझा की थी, जो कि भाजपा का पूर्व अवतार थी, जिसमें उसके संस्थापकों में से एक अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री पद पर थे।

उस चुनाव में कश्मीरियों ने केंद्र में मौजूद सत्तारूढ़ दल जनता पार्टी के खिलाफ अपना मत देकर क्षेत्रीय दल नेशनल कांफ्रेंस के पक्ष में अपना वोट किया था। इस प्रकार यह प्रचलित धारणा कि, कश्मीर में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ किया गया वोट एक तरह से भारत के खिलाफ वोट है, को ठीक किया गया था।

लेकिन दस वर्षों के अंतराल के दौरान ही घाटी में एक बार फिर से संस्थागत धांधली के माध्यम से सत्ता हथियाने के हथकंडे अपनाए जाने की यादें सताने लगी थीं। उदाहरण के लिए 1987 के विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से धांधली की गई थी, उसे अब जम्मू कश्मीर में 1988-89 में उग्रवाद की फिर से शुरुआत के लिए एकमात्र सबसे महत्वपूर्ण कारक के तौर पर चिन्हित किया जाता है।

2002 में भी इस बात की आशंका बनी हुई थी कि जम्मू कश्मीर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में तबके सत्ताधारी भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस के पक्ष में धांधली की जा सकती है। तब प्रधानमंत्री वाजपेयी वे पहले पीएम थे जिन्होंने खुलकर इस बात को स्वीकार किया था कि जम्मू एवं कश्मीर में पूर्व में संघीय सरकारों ने चुनावों में धांधली की थी।

चुनावी प्रक्रिया की निगरानी के लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को आमंत्रित किया था। अब जम्मू कश्मीर में धांधली- मुक्त डीडीसी चुनावों को सम्पन्न कराया गया है – इस दावे के साथ कि पीपुल्स अलायन्स फॉर गुपकर डिक्लेरेशन (पीएजीडी) नेताओं को चुनाव प्रचार करने की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी।

उनका यह भी कहना था कि उम्मीदवारों को सुरक्षा मुहैय्या न कराकर उन्हें उग्रवाद-प्रभावित क्षेत्रों में प्रचार करने से रोका गया था।
दूसरा यह कि जम्मू कश्मीर की 72% से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। गैर-निर्वाचित जिला विकास परिषदों के माध्यम से एक अलग शासन का मॉडल यहाँ पर पहले से ही मौजूद था।

यह लोकतान्त्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत के निषेध के समान था। 1976 में एक एकल-पंक्ति वाले प्रशासनिक मॉडल को स्थापित किया गया था, जिसमें प्रत्येक जिले की जिम्मेदारी एक काबिना मंत्री को सौंपी गई थी। लेकिन व्यावहारिक हकीकत यह थी कि एक दिन की बैठक में ही संबंधित कैबिनेट मंत्रियों की अध्यक्षता में जिला योजनाओं को सालाना मंजूरी दे दी जाती थी।

यह एक हकीकत है कि लगभग सभी जम्मू-कश्मीर की सरकारों ने 73वें संशोधन के पूर्ण कार्यान्वयन के मुद्दे पर सिर्फ आधे-अधूरे मन से कदम बढ़ाया था। यह मुद्दा विभिन्न प्राइवेट मेंबर बिल्स के माध्यम से [पूर्व] राज्य की विधायिका में बारम्बार सामने आता रहा, लेकिन राजनीतिक अभिजात वर्ग की सोच राजनीति को केंद्रीयकृत बनाये रखने वाली थी।

केंद्र सरकार ने जम्मू एंड कश्मीर पंचायती राज एक्ट, 1989 में संशोधन किया है, जिसे पंचायती राज एक्ट एंड रूल्स, 1996 के तहत जम्मू कश्मीर में चुने गए जिला विकास परिषदों को स्थापित करने के लिए अधिशासित किया गया था। अन्यथा जम्मू-कश्मीर की अति-केंद्रीकृत राजनीति में, जो अपने विविधता के लिए मशहूर है जिसमें क्षेत्रीय, धार्मिक, जातीय एवं भौगौलिक दृष्टि से निर्वाचित डीडीसी सदस्य, वे चाहे भले ही कुछ कमियों के साथ ही सही लेकिन दूर-दराज के इलाकों में जमीनी स्तर पर शासन को सुनिश्चित करेंगे।

तीसरा, राष्ट्रीय चुनावों के विपरीत इन स्थानीय चुनावों को लेकर अलगावादियों की ओर से बहिष्कार का आह्वान नहीं किया गया था। 2019 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान कश्मीर घाटी में बारामुला, श्रीनगर एवं अनंतनाग में मतदाताओं की उपस्थिति क्रमशः 34%, 14% और 8.76% ही थी।

जबकि डीडीसी चुनावों में दक्षिण कश्मीर के कुलगाम में जो अनंतनाग संसदीय सीट के अंतर्गत आता है में 28.9% मतदान की सूचना है, जबकि शोपियां में 17.5% मतदान दर्ज किया गया था। श्रीनगर संसदीय क्षेत्र में स्थित गांदरबल जिले में 43.4% मतदान दर्ज होने की खबर है। उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा जिले में जो कि बारामुला संसदीय क्षेत्र में पड़ता है, में 51.7% मतदान की खबर है। कश्मीर घाटी में उन इलाकों में मतदाताओं की बढ़चढ़कर हिस्सेदारी, जो राजनीतिक असहमति और हिंसा के प्रतीक के तौर पर जाने जाते हैं, से लोगों में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के प्रति उत्साह की भावना प्रदर्शित होती है।

हालाँकि किसी को भी व्यापक राजनीतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए। जम्मू और कश्मीर में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के तीखे होते जाने को देखा जा सकता है, और मतदान का रुझान भी उसी के अनुसार देखने को मिला है।

जम्मू और कश्मीर के उन हिस्सों में जहाँ पर बहुतायत में हिन्दू आबादी है वहाँ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के पक्ष में भारी मतदान देखने को मिला है, जबकि मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में जिसमें घाटी और जम्मू प्रान्त के पहाड़ी इलाके पड़ते हैं, वहां पर यह मतदान भाजपा के खिलाफ हुआ है।

अतीत में देखें तो जम्मू के हिन्दुओं के वर्गों के बीच में, विशेषकर दलितों के बीच में नेशनल कांफ्रेंस को अपने परम्परागत मतदाताओं वाला आधार बना पाने में कामयाब रही थी।

दलित 1950 में नेशनल कांफ्रेंस द्वारा शुरू किये गए भूमि सुधारों के लाभार्थी रहे थे, जिसमें से एक केन्द्रीय सिद्धांत यह था कि जमीन के अधिकार का प्रावधान खेत जोतने वालों के हक में किया गया था। जम्मू प्रान्त में दलितों की आबादी तकरीबन 19.44% है। हालाँकि यदि वृहद स्तर पर देखें तो उत्तर भारत के सभी हिन्दू जातियों के बीच में भाजपा के पक्ष में सुद्रढीकरण देखने को मिला है, जिसने नेशनल कांफ्रेंस के दलित वोट बैंक पर कभी उल्लेखनीय दावे के उपर अपनी बढ़त बना ली है।

इन चुनावों में भाजपा का उच्चतम वोट शेयर भी जम्मू प्रान्त के हिन्दू-बहुल जिलों में हिन्दू सुद्रढीकरण की वजह से देखने को मिला है, जहाँ पर मतदाताओं द्वारा भारी संख्या में मतदान में हिस्सेदारी देखी गई है: सांबा में (73.65%), रियासी (81.92%), जम्मू जिले में (69.39%) और उधमपुर में (60.49%) मतदान प्रतिशत देखने को मिला है।

जम्मू प्रांत में 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को प्राप्त 59.3% मतों की तुलना में यह घटकर 34.4% रह गया है। यह गिरावट इस तथ्य के कारण भी हो सकती है कि ये डीडीसी चुनाव ग्रामीण क्षेत्रों में हुए थे, और भाजपा शेष उत्तर भारत की तरह ही शहरी क्षेत्रों में पारंपरिक तौर पर मजबूत रही है।

भौगौलिक एवं धार्मिक आधार पर विविध स्वरुप लिए जम्मू प्रांत में करीब 30.69% मुस्लिम आबादी के साथ भाजपा ने जम्मू के –उधमपुर, सांबा, कठुआ और रियासी की जिला परिषदों में निर्णायक जीत हासिल करते हुए 71 सीटें हथिया ली हैं।

भाजपा ने डोडा में जहाँ पर करीब 53% मुस्लिम और 45% हिन्दू हैं, हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण के चलते जीत हासिल करने में सफल रही है, जबकि मुस्लिम मत कई दलों में बँट गए थे।

वहीँ नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और स्वतंत्र उम्मीदवारों को रामबन, पुंछ, राजौरी और किश्तवाड़ जिलों में जीत हासिल हुई हैं। इन सभी जिलों में मुस्लिम आबादी कम से कम 55% है।मौटे तौर पर देखें तो नेशनल कांफ्रेंस, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और पीएजीडी में शामिल अन्य पार्टियों की कश्मीर घाटी में मुसलमानों की 97.16% आबादी के होने से धार्मिक एवं जातीय तौर पर समरूपता के चलते स्पष्ट जीत को लेकर कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

कांग्रेस पार्टी के नाममात्र के अस्तित्व के साथ, घाटी और जम्मू प्रांत के मुसलमानों का भाजपा के खिलाफ एकताबद्ध होना एक वास्तविकता है। चुने गए प्रतिनिधियों में से करीब 13% गुज्जर मुस्लिम हैं, जो जम्मू एवं कश्मीर के एक विशिष्ट जातीय समूह के तौर पर हैं, जिनकी घाटी और जम्मू प्रांत में उपस्थिति है।

लोकतांत्रिक शासन को जमीनी स्तर पर ढांचागत तौर पर खड़ा करने का काम बेहद अहम है, लेकिन व्यापक राजनीतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जम्मू और कश्मीर के मतदाताओं का धार्मिक आधार पर बढ़ता विभाजन, जिसमें उनकी विवधता के साथ उन्हें एक साथ जोड़ पाने वाले किसी भी ढांचागत संस्थाओं न होना, बारहमासी चिंता का स्रोत बना हुआ है।

जो लोग इस क्षेत्र में पिछले तीन दशकों से चल रहे संघर्षों के चश्मदीद गवाह रहे हैं, वे जानते हैं कि धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत परिदृश्य में पीर पंजाल की पर्वत-श्रंखला जो भौगोलिक तौर पर घाटी को जम्मू क्षेत्र से विभक्त करता है, जो इसके दोनों तरफ हिंसक ताकतों के लिए किसी बारूदी ड्रम से कम नहीं है।

इस सन्दर्भ में जम्मू और कश्मीर में जमीनी स्तर पर लोकतंत्रीकरण के प्रयासों पर जश्न मनाया जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही हर किसी को बढ़ते विभाजन के बारे में भी सचेत रहने की भी जरूरत है जो इन लाभों को उलट सकते हैं।

  • डॉ. म. शाहिद सिद्दीकी
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