कृषि बिलों के बिरोध में 25 सितम्बर को भारतबंद

किसान इस समय जो संघर्ष कर रहे हैं वह पूरे देश को बचाने का संघर्ष है। यह कोई मुहावरा नहीं है।

इस समय की वास्तविकता है।
हिन्दुस्तान वास्तव में कृषि प्रधान देश है।

इस बात का क्या मतलब है? यही कि मौजूदा कृषि ढांचा आवाम के लिये पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराता रहा है।

यह अलग बात है कि सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की कमी के कारण भूख और कुपोषण की समस्या अब भी बनी हुई है। लेकिन अन्न की कमी नहीं रही। अन्न के मामले में देश आत्मनिर्भर रहा है।

किसान कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहे थे क्योंकि खेती में लागत ज़्यादा थी और आमदनी कम इस कमी को स्वामिनाथन कमैटी की तर्कसंगत सिफारिश के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर और खेती के साथ ज़रूरी सुरक्षा-कदम उठाकर दूर किया जा सकता था।

इसके लिये देश के सभी हिस्सों में स्थानीय मंडी को मजबूत करते हुए सरकारी ख़रीद और सरकारी भंडारण प्रणाली को मजबूत और विस्तृत बनाने की ज़रूरत थी।

इसके साथ ही मजबूत सार्वजनिक वितरण -व्यवस्था यानि राशन प्रणाली बनानी संभव थी लेकिन सरकार ने ठीक विपरीत दिशा में निर्णायक क़दम उठाया है।

इसलिये अब किसानों को अपनी दिशा में निर्णायक संघर्ष करने होंगे। यह अबतक चलने वाले किसान संघर्ष में भिन्न ऐतिहासिक, गुणात्मक उछाल का समय है।

मौजूदा तीन अध्यादेश और बिल के पर्दे में बिचौलियों को हटाने के बजाय सरकारी ज़िम्मेदारी को बीच से हटाया जा रहा है। किसी को भी फसल बेचने का मतलब है कार्पोरेट कम्पनी को फसल बेचना।

उनकी शर्तों पर उनकी पसन्द की फसल उगाना और मीन-मेख निकाल कर फसल रिजेक्ट करने पर किसान का कंगाल होना, ज़मीन बिक जाना और ज़मीन लेने वाली कम्पनी के फार्म पर मज़दूरी करना ,धीरे-धीरे उसका बंधुआ बन जाना।

इस ख़रीद-फरोख़्त में किसान को कोई हक़ नहीं। वह अधिक से अधिक एसडीएम के पास जा सकता है। अब आप बताईये एसडीएम भुखमरे किसान की बात सुनेगा या कार्पोरेट कम्पनी की जिसकी हिमायती ख़ुद सरकार है।

स्थानीय मंडी में आढ़तियों और किसानों के बीच गहरा सहयोग का सम्बन्ध है। यह केवल आर्थिक नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना है। यहां भी विवाद होते हैं लेकिन उन्हें मंडी की काउंसिल का सैक्रेटरी सुनता है मिलजुलकर मामले सुलझा लिये जाते हैं।

आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अनुसार, आलू, तेल, दाल, चावल, गेहूं आदि खाद्यान्न पर लागू कालाबाज़ारी की बन्दिश को हटा दिया गया है।
अब कोई भी कम्पनी आराम से जमाखोरी कर सकती है। इसका एक उदाहरण तो महाराष्ट्र में दाल घोटाले का है जिसके बाद दाल 200 रु किलो बिकी।

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