“रेलवे स्टेशनों के बीच मासूम बच्चों की जिंदगी कहीं खो सी गई है। ट्रेन जब किसी रेलवे स्टेशनों पर रुकती है, तो आपकी भी निगाहें उन बच्चों पर पड़ी होगी जो कभी रेलवे ट्रैक पर बोतले चुनते नजर आए होंगे या फिर कोच को अपनी कमीज से फर्श साफ करते दिखे होंगे।उन्हीं बच्चों में से एक था राकेश ।”
रेलवे स्टेशनों के बीच मासूम बच्चों की जिंदगी कहीं खो सी गई है। खेत खलिहानों और शहरों से गुजरती हुई ट्रेन जब किसी रेलवे स्टेशनों पर रुकती है, तो आपकी भी निगाहें उन बच्चों पर जरूर पड़ी होगी जो कभी रेलवे ट्रैक पर बोतले चुनते नजर आए होंगे या फिर आपके कोच को अपने मैले-कुचले कमीज से फर्श साफ करते दिखे होंगे।
उन्हीं बच्चों में से एक था राकेश (बदला हुआ नाम), जिसने अपना बचपन उसी रेल की पटरी पर गुजारे हैं। राकेश (बदला हुआ नाम) अब बवाना में रहता है, लेकिन उसका दिल अब भी नई दिल्ली स्टेशन के उन पटरियों के इर्द-गिर्द भटकता है, जहां अपने जीवन के बेशकीमती 15 साल बिताए हैं। क्यों कि वो नहीं चाहता कि उसकी तरह पटरियों पर बोतलें चुनने वाले, वहीं अपनी जिंदगी खत्म न कर दें। इन बच्चों की बदहाली और गरीबी को देखकर इन्हें जबरजस्ती स्टेशन से बाहर करना भी एक बड़ी चुनौती है।
लेकिन अब वो अपनी जिंदगी के बाकी हिस्से को उन बेसहारा बच्चों को एक नई राह देनें में लगा है। राकेश को हम सब के साथ की जरूरत है। आईए हम सब मिलकर इसका साथ दें।
सुनिए उसके जीवन की पीड़ा, उसी की जुबानी….