संकट या विपदा में ही क्यों याद करते हैं “सामुदायिक रेडियो” को?

जी हां, यही रेडियो है जो शंकराचार्य पहाड़ी की चोटी से मुसीबत में फंसे लोगों का संपर्क सूत्र बनकर सूचनाएं देता रहा है। बाढ़ के हालात में शंकराचार्य पहाड़ी से पूरा शहर डूबा दिखाई देता है और इसी डूबे शहर में रेडियो कश्मीर की इमारत भी शामिल होता है। मुसीबत की इस घड़ी में रेडियो की गूंज कहीं थम न जाए इसलिए रेडियो दफ्तर को शंकराचार्य की पहाड़ी पर स्थापित कर अस्थायी प्रसारण शुरू किया गया था, ताकि मुसीबत के समय में फंसे लोग अपनों की खबर ले सकें और संपर्क कर सकें। आज इस मुसीबत की घड़ी में जहां संचार के सारे माध्यम ठप पड़ चुके हैं, वहां यही रेडियो पूरी घाटी के लिए इकलौता संपर्क का साधन है, जो स्थानीय समाचार के साथ-साथ बाढ़ में गुमशुदा लोगों की खबर भी लेता रहा है।

पिछले सालों में कम्युनिटी रेडियो ने एक स्पेशल फोन-इन प्रोग्राम जीवन रेखा की शुरू की थी, जो बाढ़ में फंसे लोगों के लिए मददगार साबित हुई।

इससे पहले उत्तराखंड में भी आसमान से बरसी आफत ने जबरदस्त तबाही मचाई थी। तब खत्म होती जि़ंदगियां, उफनती नदियां और ताश के पत्ते की तरह बिखरते घरों ने आपदा प्रबंधन की तैयारियों की पोल खोल कर रख दी थी। उत्तराखंड या जम्मू-कश्मीर ही नहीं आज यह पूरे देश की कड़वी सच्चाई है कि कहीं भी आपदा प्रबंधन हमारी प्राथमिकता नहीं है। आपदा प्रबंधन तो दूर, हमने पिछले हादसों से भी कभी कुछ नहीं सीखा। हालात ये हैं कि सूचनाओं तक में विभागीय तालमेल नहीं है।

ऐसे हालात को देखकर कोई भी आसानी से कह सकता है कि ये तबाही किसी और वजह से नहीं, हमारी लचर व्यवस्था और लापरवाही का ही नतीजा है। आज भी संकट की घड़ी में अगर कोई काम आता है तो वो है सेना की टीम और पहाड़ों में कुछ कम्युनिटी रेडियो सेवाएं।

जम्मू-कश्मीर हो या उत्तराखंड, आज की तारीख में 50 फीसदी से ज्यादा झीलों, तालाब और वेटलैंड का अतिक्रमण किया जा चुका है। उन पर मकान, रिसॉर्ट, रोड वगैरह बनाए जा चुके हैं। इसलिए जब इतनी ज्यादा मात्रा में पानी गिरता है तो उसका निकलना नामुमकिन सा हो जाता है। वह इसलिए कि ये जो झील वगैरह होती हैं वो स्पंज की तरह काम करती हैं- यानि वह काफी मात्रा में पानी सोख लेती हैं।

अब सवाल यह है कि आखिर विकास कैसे हो? निर्माण नहीं होगा तो रोजगार कैसे होगा? कैसे स्कूल बनेंगे और कैसे बिजली आएगी? कैसे उद्योग आएंगे? लेकिन आंकड़े और वहां के हालात बताते हैं कि इन परियोजनाओं से और निर्माण सेक्टर में भारी आपाधापी के बावजूद उत्तराखंड या जम्मू-कश्मीर जैसे 14-15 साल पुराने राज्यों का कोई बड़ा भला नहीं हुआ। उसने कोई भारी छलांग तरक्की की नहीं लगा ली है। सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय के सुनहरे आंकड़े बेशक उसके पास हैं, लेकिन फाइलों से आगे असली दुनिया में उनका वजूद नहीं। आंकड़ों की गिनती से आम पहाड़ी गायब है।

ऐसे में अब हमें जरूरत है एक गंभीर मंथन की। जिसमें घाटियों की प्रकृतिक सुंदरता को बनाए रखने के साथ-साथ उनका समेकित विकास पर विचार हो। साथ ही सूचना प्रणाली को सशक्त करने पर निर्णायक पहल हो, ताकि वक्त रहते भविष्य में आपदा से होने वाली भारी तबाही को कम कर सकें।

आज इंटरनेट और तकनीक युग में यूं तो हमारे पास सूचना के कई स्रोत हैं, जैसे रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, एसएमएस, मोबाइल फोन वगैरह। फिर भी आपात स्थिति में समस्या के निदान में ये स्रोत निर्णायक भूमिका नहीं निभा पाये। इसकी एक वजह है, लचर सूचना तंत्र। इन सूचना को स्रोतों में से संचार के दो मजबूत सामुदायिक माध्यम हैं- पहला, सामुदायिक रेडियो और दूसरा, मोबाइल फोन। लोगों की जान बचाने में सामुदायिक रेडियो की भूमिका अहम होती है क्योंकि इसे स्थानीय लोगों का नियंत्रण और संचालन होता है, जो उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर आपदा के दौरान साबित हो चुका है। वैसे भी भारत की 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है, जहां शासन-सुविधा से लेकर सूचना तक अपर्याप्त हैं। ऐसे में, सामुदायिक रेडियो की अहमियत और बढ़ जाती हैं।

-शाहिद सिद्दीकी

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